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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
10. व्रज में क्रमशः छहों ऋतुओं का आगमन और श्रीकृष्ण की वर्षगाँठ
व्रजपुर को अलंकृत करने वर्षा ऋतु आयी हुई थी। वह श्यामघटा का विस्तार करके रिमझिम-रिमझिम करती हुई बूँदों के रूप में नन्दप्रांगण में झरा करती। एक दिन झरते समय हठात उसने यशोदा के क्रोड में अवस्थित श्यामवर्ण नवजात नन्दनन्द को देखा। देखते ही मानो उसे प्रतीत हुआ-मेरे निर्माण से पूर्व किसी विश्वातीत विचित्र स्रष्टा ने इस श्यामशिशु का निर्माण किया था, निर्माण के पश्चात् उसने अपने श्याम-रंग-रंजित हाथों को सागर में धोया था, वह हस्त-प्रक्षालित श्यामवीर जमकर घन हो गया, उसी को उपादान बनाकर विधाता ने मेरे नवजलधर रूप में व्यक्त होने वाले अंगों की रचना की थी। आज वर्षा को नन्दनन्दन का रूप देखकर अपने रूप के उद्गम का ज्ञान हुआ। इतना सुन्दर मूल देखकर वह फूली न समाती थी। अतृप्त नयनों से वह नन्दनन्दन का सौन्दर्य निहारती हुई व्रज के आकाश में नाच रही थी। नाचते-नाचते मन में आया-एक बार सर्वथा नन्दनन्दन में मिल जाऊँ, निकटतम स्पर्श पाकर कृतार्थ हो जाऊँ, साथ ही इनकी श्यामता की एक पुट मेरे अंगों पर और लग जाय, कदाचित् नन्दनन्दन के अतुल श्यामल अंगों की यत्किंचित् तुलना की सामग्री मेरे अंग भी बन जायँ। वर्षा ने मानो इसी उद्देश्य से अपने अंगों (मेघ) को समेटा तथा देखते-ही-देखते वह इस बार- आकाश में नहीं-व्रजेन्द्रनन्दन के श्याम अंगों में विलीन हो गयी। इसके पश्चात शरत-सुन्दरी आयी। राशि-राशि विकसित पद्मों की ओट से झाँक-झाँककर मानो वह देख रही थी कि इस बार व्रजपुर कैसा सजा। नन्दप्रासाद के दक्षिण पार्श्ववर्ती सुरम्य सरोवर के प्रस्फुटित कमलों में छिपकर बैठी हुई वह एक दिन नन्दभवन की शोभा परख रही थी। हठात प्रिय पुत्र को गोद में लिये व्रजरानी गवाक्षरन्ध्रों के समीप आ गयीं तथा शरत-सुन्दरी ने नन्दनन्दन को देख लिया। उसने मानो अनुभव किया-ओह! नन्दनन्दन का मुख तो एक पूर्ण प्रस्फुटित अरविन्द है, दोनों नेत्र दो उत्फुल्ल कमल हैं, दोनों हाथ विकासोन्मुख दो अम्बुजकोरक हैं; नाभि? नाभि नहीं है, यह तो एक अरुणाम्भोजकोष (लाल कमल की कली) है तथा ये दोनों चरण तो पूर्ण विकसित पंकज हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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