श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
53. ब्रह्मा जी का अपने ही लोक में पराभव और वहाँ से लौटकर श्रीकृष्ण को वन में पूर्ववत उन्हीं गोपबालकों एवं गोवत्सों के साथ, जिन्हें वे चुराकर ले गये थे, खेलते देखकर आश्चर्यचकित होना; फिर उनका सम्पूर्ण गोवत्सों एवं गोपबालकों को दिव्य चतुर्भुज रूप में देखना और मूर्च्छित होकर अपने वाहन हंस की पीठ पर लुढ़क पड़ना
यहाँ का कालमान जगत्स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्मा के लिये कोई महत्त्व नहीं रखता। सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि इन चार युगों की एक चतुर्युगी[1] एवं ऐसी एक सहस्र चतुर्युगी जिनके एक दिन की संध्या होने तक समाप्त हो जाती है तथा पुनः एक सहस्र चतुर्युगी परिमित कालमान की जिनकी रात्रि होती है जिनके एक अहो रात्र में मानव जगत की दो सहस्र चतुर्युगी जितने कालमान का अवसान हो जाता है, उनके लिये यहाँ के दिन, मास, वर्ष क्या मूल्य रखते हैं। इसीलिये हंस वाहन को तो अपने कालमान से केवल ‘त्रुटि’ मात्र[2] समय लगा और वे इतने काल में ही श्रीकृष्णचन्द्र के गोपसखाओं को गोवत्सों को स्थानान्तरित करने के पश्चात -सत्यलोक में जाकर पुनः वृन्दाकानन के आकाश में ही लौट आये। किंतु उनका यह ‘त्रुटि’ मात्र ही मानव कालमान की दृष्टि से- यहाँ के लिये एक वर्ष की अवधि बन गयी और इतने समय तक श्रीकृष्णचन्द्र का निर्बाध आत्म विहार होता रहा। आज वर्ष पूर्ण हो रहा है। ठीक आज से एक वर्ष पूर्व इसी दिन श्रीकृष्णचन्द्र की पुलिन भोजन लीला सम्पन्न हुई थी शिशु एवं गोवत्स अपहृत हुए थे। उस दिन भी अग्रज बलराम अपने अनुज के साथ वत्स चारण के लिये वन में नहीं गये थे और आज के दिन भी अचिन्त्यलीला महाशक्ति की प्रेरणा से अग्रज के जन्म-नक्षत्र का संयोग हो गया और वे घर पर ही शास्त्रोचित्त कृत्य के लिये रोक लिये गये। आज भी एकाकी श्रीकृष्णचन्द्र ही अपने स्वरूप शिशु सखा एवं गोवत्सों से आवृत हुए वन में पधारे हैं, सुदूर वनस्थली में आकर स्वच्छन्द विचरण कर रहे हैं। ठीक उसी रूप में हंस वाहन को दर्शन भी होते हैं। पर यह दर्शन होने से पूर्व स्रष्टा ने अपने लोक में जाकर एक और भी विचित्र अनुभूति कर ली है तथा उसी से अस्त-व्यस्त होकर दौड़ते हुए वे तत्क्षण लौट आये हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलियुग होता है। कलियुग से दूना द्वापर, तिगुना त्रेता एवं चैगुना सत्ययुग का कालमान है। अर्थात् एक चतुयुर्गी तैंतालीस लाख, बीस हजार वर्ष की होती है।
- ↑ एक दिन के अठारह करोड़, बाईस लाख, पचास हजार अंश के एक अंश-जितने परिमित काल को ‘त्रुटि’ कहते हैं।
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