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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
30. यमलार्जुन के अतीत जन्म की कथा; यमलार्जुन-उद्धार
मन्दाकिनी का कल-कल नाद कैलास के उस सुरम्य उपवन को मुखरित कर रहा था। पुष्पित तरुश्रेणी, लतिकाएँ मन्द समीर का स्पर्श पाकर झूम रही थीं। राशि-राशि विकसित पद्मों के सौरभ से समस्त वनस्थली सुरभित हो रही थी। शिखर का यह मनोरथ दृश्य देवर्षि के भक्तिरसभावित चित्त में नवरस का संचार कर रहा था; उनकी स्वरब्रह्मविभूषित देवदत्त-वीणा से झरती हुई रागलहरी में, श्रीमुख से निस्सृत हरि गुणगान में प्रतिक्षण नव उल्लास का हेतु बन रहा था। पर वही शोभा कुबेरतनय नलकूबर एवं मणिग्रीव के विषयविदूषित मन में नव-नव भोगवासना उदीप्त कर रही थी, उनकी उद्दाम भोगप्रवृत्ति में और भी आसुर भाव भरने में कारण बन रही थी। एक ही वस्तु पात्रभेद से एक ही समय अमृत एवं विष के रूप में परिणत हो रही थी। देवर्षि हरियशसुधा का पान करते हुए, सुधारस से उपवन को प्लावित करते हुए नर-नारायण-आश्रम की ओर अग्रसर हो रहे थे तथा ये दोनों यक्षबन्धु अमर वारविलासिनियों (अप्सराओं) का दल एकत्र कर, वारुणी मदिरा का पान कर, भगवान शंकर के इस परम पावन तपोवन को भ्रष्ट करते हुए निरंकुश विहार कर रहे थे। अप्सराएँ विवस्त्रा थीं, ये दोनों भी दिगम्बर थे, मन्दाकिनी की पुनीत धारा में प्रवेश कर उन्मत्त जलक्रीड़ा में संलग्न थे, अपने-आपको भूल-से गये थे। दैवयोगवश देवर्षि ठीक उसी स्थान से होकर निकले। अप्सराओं की दृष्टि उन पर पड़ी; सब-की-सब सकपका गयीं और लज्जित तथा शापशंकित होकर बाहर निकल आयीं, तट पर आकर शीघ्र-से-शीघ्र सबने वस्त्र धारण कर लिये-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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