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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
76. प्रलम्बासुर-उद्धार
यद्यपि प्रलम्ब ने वेश का अनुकरण करने में कोई कसर नहीं की, बाह्य दृष्टि में वह सचमुच गोप शिशु के रूप में ही परिणत हो गया, श्रीकृष्ण संग से दिनभर के लिये वंचित हुए, घर में अभिभावकों द्वारा रुद्ध उस बालक की सम्पूर्ण मुद्राएँ, चेष्टाएँ सोच-सोच कर उसने अपने में व्यक्त कर लीं, और यहाँ आकर इस समाज में मिश्रित होने के उद्देश्य से, इसका ही आश्रय ले लेने की इच्छा से वह इसमें हँसता हुआ प्रविष्ट भी हो गया। तथापि सर्वज्ञ, सर्ववित श्रीकृष्णचन्द्र की आँखें तो उस पर पड़ ही गयीं-
और लीला विहारी ही तो ठहरे वे, कैसे अनजान-से बन गये और हँस कर बोले-
‘अरे भैया! तुमने देर क्यों कर दी रे! फिर भी बहुत सुन्दर! तुम आ तो गये ठीक खेलने की इच्छा करते ही।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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