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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
उन अखिल लोकपाल बाल गोपाल का वन विहार भी निराला ही है। वे जा तो रहे हैं अरण्य की शोभा निहारते हुए-
किंतु साथ ही एक-से-एक मनोरम कौतुक का निर्माण भी होता जा रहा है। कभी तो वे अपने ही श्रीअंग के सौरभ पान से मदान्ध हुए भ्रमरों का ‘गुन-गुन’ रव सुनकर उस गुञ्जन का ही अनुकरण करने लगते हैं- इतनी सफल एवं सरस अनुकृति कि उनके नित्य सहचर अग्रज श्री बलराम को भी अनुज के मुख से निस्सृत गुञ्जन-स्वर का यह झंकार विस्मित कर देता है और वे उल्लास में भरकर स्वयं भी इस क्रीड़ा में योगदान करने लग जाते हैं। तथा उन गोप शिशुओं के आनन्द का तो कहना ही क्या है। उनके सरल, सख्य-रस भावित हृदय की भावना बरबस बाहर की ओर उमड़ चलती है- अपने कोटि-कोटि प्राण प्रिय कन्हैया भैया के लिये प्रशंसा के गीत एवं ‘अहाहा! अरे! वाह रे, कन्नू भैया!’ इस साधुवाद का मंजु घोष पद-पद पर गूँजने लगता है। इतना ही नहीं, उन शिशुओं का हृत्तल न जाने नीलसुन्दर के कितने शत सहस्र पुनीत प्रेमिल रसमय चरितों के संस्मरण से नित्यपूर्ण हैं। किसका द्वार खुले, यह नियम थोड़े ही है। इसके अतिरिक्त वे बालक भी असंख्य जो हैं। आनन्द विभोर होकर- जिसके मन में श्रीकृष्णचन्द्र की जिस लीला की स्फूर्ति हो जाय, बस, उसी का गीत- सर्वथा अपनी विलक्षण प्रतिभा से ही रचकर वह गाने लगता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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