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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
26. स्वयं यशोदा के द्वारा दधिमन्थन तथा श्रीकृष्ण का जननी को रोककर उनका स्तन्य पान करना
तारकपंक्ति शयनागार के गवाक्षरन्ध्रों से झाँककर मानो सूचना दे रही थी- ‘व्रजरानी! अभी तो निशा है, उषा भी नहीं आयी, किंचित और विश्राम कर लो।’ किंतु व्रजेश्वरी तो दूसरी धुन में हैं। उन्हें तो अभी उठना है; अपने नीलमणि के लिये दधिमन्थन कर नवनीत जो प्रस्तुत करना है; पद्मगन्धा गायों के दूध को औटाकर, परम सुमिष्ट बनाकर तैयार कर रखना है! नीलमणि जब उठेंगे, तब सद्योमथित माखन भोजन कर, दुग्धपान कर तृप्त होंगे तथा उन्हें तृप्त देखकर यशोदा रानी की एक चिरसेवित अभिलाषा पूर्ण हो जायगी। अब तक एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ था कि आदि से अन्त तक, दुग्धदोहन से आरम्भ कर मन्थन तक सभी कार्य यशोदारानी स्वयं अपने हाथों करें। अगणित दास-दासियों के प्रेमिल आग्रह के सामने व्रजेश्वरी की एक भी नहीं चलती तथा ‘मैं हो तो गोदोहन करूँ, मैं हो दुग्ध औटाऊँ, मैं हो दधि में जोरन दूँ, मैं ही मन्थन कर माखन निकालूँ और फिर नीलमणि इसे यथेच्छ आरोग कर तृप्त हो’- उनका यह मनोरथ अपूर्ण रह जाता। इसके लिये जननी अनेक युक्तियाँ सोचतीं, परिचारिकाओं की मनुहार करतीं, उन पर अन्य कार्य का भार सौंप देतीं तथा ऐसा करके कभी-कभी दधिमन्थन करने का सुअवसर तो प्राप्त कर लेतीं; पर वह भी पूरा नहीं हो पाता। या तो श्रीकृष्णचन्द्र मचल उठते या कोई परिचारिका जननी के मन्थनश्रम को देखकर उनके चरण पकड़ लेेती, उस पर यह सेवा सौंप देने के लिये जननी को बाध्य कर देती। और नहीं तो श्रीरोहिणी के प्रेम के सामने यशोदारानी विवश हो ही जातीं। इस प्रकार कभी मन्थन करने का अवसर प्राप्त करने पर भी किसी-न-किसी का सहयोग व्रजेश्वरी को लेना ही पड़ता; किंतु आज ऐसा सुयोग बन गया है कि नन्दभवन में केवल श्रीकृष्णचन्द्र हैं, व्रजरानी हैं; इनके अतिरिक्त और कोई नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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