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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
48. अघासुर के पूर्वजन्म का वृत्तान्त; अघासुर के वध पर देववर्ग के द्वारा श्रीकृष्ण का अभिनन्दन
एक दिन यही अघदैत्य शंखासुर का पुत्र था, देखने में अत्यन्त सुन्दर था। कामदेव जैसी शोभा इसके अंगों से झरती रहती थी। पर था यह अतिशय अभिमानी। रूप के गर्व ने इसे अंधा बना दिया था। बाह्य सौन्दर्य के अभाव में भी कोई आदरणीय, वन्दनीय हो सकता है यह विवेकशक्ति यौवन के उन्माद ने हर ली थी। ऐसे रूपमदोद्धत युवक असुर को अष्टावक्र मुनि की आकृति देखकर हँसी न आवे, यह भी कभी सम्भव है? मुनि पर दृष्टि पड़ते ही वह हँस पड़ा। उसकी विकट हँसी मलयाचल श्रृंगों में प्रतिनादित हो उठी मानो चन्दन-वन से नित्य शीतल मलयगिरि के अन्तस्तल में भी इस महदपराध से रोष का आविर्भाव हो गया हो और वह महीधर गरज उठा हो! अष्टावक्र का ध्यान तो उस ओर था ही नहीं, वे तो अपने धुन में अपने टेढ़े-मेढ़े शरीर की स्वाभाविक वंकिम गति से नीची दृष्टि किये चलते जा रहे थे। सहसा कानों में घृणाभरी ध्वनि आयी- ‘अरे, यह महाकुरूप है!’ फिर तो मुनि के नेत्र ऊपर उठ गये। इस उक्ति का लक्ष्य कौन है, यह समझते उन्हें देर नहीं लगी। उनकी आँखें लाल हो आयीं। उन जैसे वीतराग मुनिजनों में भी क्रोध का अवकाश है, यह कल्पना नितान्त निरर्थक है। उनका यह क्षोभ तो स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दन की अचिन्त्यलीला-महाशक्ति ने सुदूर भविष्य की भगवदीय लीला का आयोजन करने जाकर मुनि के मन को अपना यन्त्र बना लिया इसका एक निदर्शनमात्र है। जो हो, अन्तर का यह रोष बाग्वज्र बनकर बाहर निकला। मुनिश्रेष्ठ अष्टावक बोल उठे-
‘रे दुष्टबुद्धि, जा, सर्प बन जा। भूमण्डल पर सर्पों की जाति ही कुरूप एवं कुटिल गतिवाली होती है।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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