श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
57. ब्रह्मा जी का श्रीकृष्ण से विदा माँग कर सत्य लोग में लौट जाना; पुनः वन-भोजन; योग माया के द्वारा गोपबालकों एवं गोवत्सों का व्रज में प्रत्यावर्तन; उनके सामने उसी दृश्य का पुनः प्रकट होना, जिसे छोड़कर श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढ़ने निकले थे, तथा उन्हें ऐसा प्रतीत होना मानो श्रीकृष्ण अभी-अभी गये हैं।
‘तुम्हारी इस लीला विलास की आड़ में एक साथ मुझे दो वस्तुओं के दर्शन हो रहे हैं, देव!’ व्रजराज कुमार के असमोर्ध्व ऐश्वर्य एवं माधुर्य के बीच में झूलते हुए पुकार उठते हैं ‘प्रभो! एक ओर तुम सर्वकारण-कारण हो; पर साथ ही उसी समय इस व्रजपुर में, व्रजेन्द्र सदन में व्रजराज-व्रजरानी के पुत्र रूप में, उनके नीलसुन्दर होकर तुम्हारा जन्म है। तुम में समस्त विकारों का सर्वथा अभाव है, सच्चिदानन्द विग्रह हो तुम; पर साथ ही यहीं इस व्रजपुर में ही, ओह! क्षुधा की वेदना से अभिभूत हो कर क्रन्दन करते हुए तुमने जननी से नवनीत की याचना की है। प्रपञ्च के दोषों की गन्ध भी तुम में नहीं है, परम विशुद्ध हो तुम; फिर भी व्रजसुन्दरियों के आवास में जा कर तुमने नवनीत का अपहरण किया है। स्वयं आत्माराम हो कर भी इन गोपशिशुओं के साथ मिलकर नित्य नवीन कौतुक-रचना का लोभ तुम संवरण नहीं कर पाते। इस प्रकार एक ओर तो तुम प्रपञ्च से सर्वथा अतीत हो, जगत-जागतिक भावों का कहीं किंचिन्मात्र कोई भी सम्बन्ध तुमसे नहीं है; तथापि ठीक उसी समय तुम्हारा जन्म है; दिवस, रजनी, पक्ष, मास एवं वर्ष के अनुक्रम से तुम्हारे श्रीअंगों में वृद्धि के दर्शन हुए हैं, होते हैं; क्षुधा, शिशु सुलभ चञ्चलता आदि अनेकों जागतिक भावों के स्रोत से संगमित तुम्हारी लीला मन्दाकिनी प्रसरित होती रहती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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