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गोप-शिशुओं के प्रेमिल स्तवन का विराम हुआ। मानो गिराधिदेवी सच्चिदानन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के ऐश्वर्य सिन्धु में एवं शिशुओं के कण-कण से प्रसरित सख्यरस के निराविल चंचल प्रवाह में अवगाहन कर अपनी शक्तिभर ऐश्वर्यकण, रस पीकर उलीच कर परिश्रान्त हो गयीं; सिन्धु को, रसप्रवाह को सर्वथा सब ओर से अपरिसीम अनुभव कर, इनकी थाह पाने की आशा छोड़, तट पर उठ आयीं, इस प्रकार बालकों ने अपने कन्हैया भैया के यशोगान का उपसंहार किया। अब वहाँ बच रही केवल सख्यभाव की सहज स्निग्ध शान्त धारा, जिसमें श्रीकृष्णचन्द्र के अमित ऐश्वर्य का एक कण भी खप नहीं सकता। इसकी गन्ध भी वहाँ नहीं मिल सकती। इसीलिये बालकों के भावभंगी, उनकी प्रश्नावली, परस्पर का उत्तर-प्रत्युत्तर ये सब भी बदल गये। एक शिशु ने पूछ ही तो लिया- ‘अरे भैया कन्हैया! हमलोग तो खेलते-खेलते अत्यन्त भीषण विष की ज्वाला में भस्म हो चुके थे। बता तो सही, तुमने कैसे जला दिया?’ तथा सखा श्रीकृष्णचन्द्र ने भी प्रश्न के अनुरूप ही उत्तर दिया। वे आश्चर्य की मुद्रा में बोले-
- स च सचमत्कारं तानगददगददक्षोऽस्मि विषस्य। येनागदेन नागदेन गन्धमात्रादेव गतासवोऽवगतासवोत्सवा इव समुल्लसितजीवना भवन्तीति।[1]
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