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प्रतिदिन गो चारण के अनन्तर श्रीकृष्णचन्द्र व्रज में प्रविष्ट होते थे सायं काल। किंतु आज वे आ रहे हैं उस समय, जबकि किरणमाली पूर्व क्षितिज की ओट से झाँकने लगे हैं। कालिय दमन का वह दिन, दावानल-शमन की वह निशा व्यतीत हो जाने पर व्रजेश्वर ने अपने आवास की ओर प्रस्थान किया तथा गो-गोप-गोपियों से परिवृत होकर नीलसुन्दर गोष्ठ में पधारे-
- सुख कियौ जमुन-तट एक दिन-रैनि बसि, प्रातहीं व्रज गई गोप-नारी।
- सूर-प्रभु स्याम-बलराम नँद-धाम गए, मातु-पितु घोष-जननी-सुखकारी।।
- जगत-ईस प्रभु सक्ति अनंता।
- कृष्नदेव प्रभु श्रीभगवंता।।
- पुनि निज बंधु सहित जदुनाथा।
- प्रबिसे व्रज हरषित एक साथा।।
- गोपी मुदित गान कल बानी।
- सुनत गेह पहुँचे सुखदानी।।
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