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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
25. ग्वालिनों के उपालम्भ पर माँ यशोदा की चिन्ता और उलाहना देनेवाली पर खीझ
कलिन्दनन्दिनी के तरल प्रवाह के अति समीप अपने नीलमणि को लहरियों का जल बिखेरते देखकर यशोदारानी का हृदय धक-धक कर उठा। हाथ का पात्र भूमि पर पटककर वे दौड़ पड़ीं तथा पीछे से जाकर उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र को पकड़ लिया। चंचल लहरें व्रजेश्वरी के चरणों का स्पर्श करने लगीं। व्रजरानी ने सोचा- ‘अरे! एक क्षण का भी यदि विलम्ब हो गया होता और नीलमणि एक डग भी आगे बढ़ जाता तो लहरें इसे बहा ले जातीं। मेरा तो सर्वनाश हो जाता...........।’ उन्होंने व्याकुल नेत्रों से एक बार तो उमड़ती हुई तपनतनया श्रीयमुना की ऊँची लहरों की ओर देखा, लहरें तीर से बार-बार टकराकर बड़े वेग से क्षण-क्षण में दिशा बदल रही थीं; तथा फिर देखा, उसी तीर पर खड़े नन्हें-नन्हें गोपशिशुओं को। गोपशिशु विविध तरुपत्रों से दोने बना-बनाकर यमुना के प्रवाह में छोड़ रहे थे। जननी के आने से पूर्व यही तो खेल हो रहा था। होड़ लगी थी कि श्रीकृष्णचन्द्र से दस हाथ दूर किस गोपसखा ने कितने दोने बहाये एवं श्रीकृष्णचन्द्र बह-बहकर आते हुए उन पत्रपुटों से कितने पकड़ पाये। पत्रपुट बालकों के हाथ से छूटते ही तरगों पर नाचने लगते, तरंगें उन्हें बहा ले चलतीं; कुछ तो धारा के वेग से गम्भीर जल में बह जाते, कुछ किनारे को छूते हुए-से चलते। इनमें से कुछ को तो श्रीकृष्णचन्द्र हाथ फैलाकर पकड़ लेते और कुछ को धाराएँ बहा ले जातीं। पत्रपुट हाथ में आते ही विजय के उल्लास में वे तीर की ओर देखते, गोपसखा आनन्द-कोलाहल करने लगते; किंतु जब दोना हाथ में नहीं आता तो शिशु ताली पीटने लगते। यह क्रीड़ा हो रही थी। जननी ने आकर उसमें विघ्न कर दिया। उन्हें देखकर गोपबालक तो किंचित सहम गये; किंतु श्रीकृष्णचन्द्र उमंग में भकर मैया से अपनी जयघोषणा करने लगे कि ‘देख, मैंने इतने पत्रपुट जल में से छाने हैं।’ जननी पहले तो कुछ रोष में भरकर, फिर लाड़पूर्वक, श्रीकृष्णचन्द्र एवं अन्य बालकों को बार-बार समझाने लगीं। उन्होंने आगे कभी भी जल में उतरने से, ऐसा खेल खेलने से सबको सावधान किया, डूब जाने की सम्भावना दिखाकर भय भी दिखलाया। पर यह करके स्वयं चिन्ता में निमग्न हो गयीं कि ‘अब कौन-सा उपाय करें?’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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