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खेल में उलझे हुए गोप शिशु तो गोधन की सँभाल की बात सर्वथा भूल गये और गौएँ आश्चर्य है, जो श्रीकृष्णचन्द्र के दृष्टि पथ से ओझल होते ही तृण चरना स्थगित कर देतीं, वे आज क्रमशः सुदूर वन स्थली की ओर अपने-आप बढ़ती ही चली गयीं। उनकी आँखों में नित्य विराजित नीलसुन्दर के स्थान पर न जाने कैसे हरित तृणों का लोभ झलमल कर उठा और फिर भ्रान्त-सी बन कर तृण चरती हुई वे आगे-से-आगे चलकर एक गहन वन में प्रविष्ट हो गयीं-
- क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्गावो दूरचारिणी:।
- स्वैरं चरंत्यौ विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम्॥[1]
- खेलत-हँसत ग्वाल मन लाई।
- स्वेच्छा चरति धेनु सुख पाई।।
- तृन-लोभित गइँ गहन गँभीरा।
- गई दूरि चलिं हे नृप धीरा।।
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