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नाग वधुओं की उस स्नेह पूरित भर्त्सना का भी श्रीकृष्णचन्द्र पर कोई प्रभाव न हुआ, अपितु हँस-हँस कर वे अब अपने चञ्चल कर-कमलों से जल बिखरने लगे। इतना ही नहीं, पलक गिरते-गिरते वह ह्नद के वक्षःस्थल पर उठ आये और मानों संतरण करने जा रहे हों, इस भाव से भुजा फैलाकर जल को थपथपाने लगे। और फिर उनका यह श्यामल कलेवर उस विशाल ह्नद में सर्वत्र घूमने लगा। वे यथेच्छ विचरण करने लगे। मत्त गजेन्द्र की भाँति उनका जल विहार आरम्भ हुआ। भुजाओं से एवं पद-संचालन के द्वारा जल अत्यधिक आलोडित हो गया, एक साथ ही अगणित आवर्त बन गये, तल देश का जल ऊपर एवं ऊपर का प्रवाह तलदेश की ओर प्रसरित होने लगा। कालिय-आवास को अस्त-व्यस्त बनाती हुई सहस्रों धाराएँ परस्पर नीचे-ऊपर टकराने लगीं। उनकी चपेट में आकर सर्पावास सब ओर से उलटने-सा लगा, कालिय के कुटुम्बी सर्पगण अर्धमृत-से होने लगे। तथा लीला विहारी व्रजेन्द्र नन्दन की तो यह क्रीड़ा थी, वे जल को पीट-पीट कर जल-वाद्य का स्वर निकाल रहे थे। किंतु कालिय-शयानागार में यह ध्वनि भीषण वज्रपात के रूप में व्यक्त हो रही थी, सबके कान फटे जा रहे थे।
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