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उपयुक्त उपमा न पाकर संकुचित सरस्वती लीलादर्शी कवि के हृदय में इतना ही कह सकीं-मानो एक हंस हो और एक मयूर; हंस ने तो अपने चारु चन्चु से मोती उठाकर मुख में रख लिया, मयूर ने पन्नगी को पकड़ लिया-इस प्रकार दौड़कर बलराम ने व्रजरानी की नासिका पर सुशोभित मोती (बुलाक) को पकड़ा एवं श्रीकृष्णचन्द्र ने पीठ पर बल खाती हुई वेणी को। दोनों भाइयों ने जननी को तत्क्षण गृहकार्य स्थगित कर देने के लिये विवश कर दिया। दो बार हो चुका, दोनों माखन रोटी के लिये जननी को पुकार रहे थे। जननी भी पुकार सुन रही थीं, किंतु इस मधुर आह्वान से झरते हुए सुधा रस का आस्वाद लेती हुई-‘देखें, ये दोनों उत्तर न पाने पर क्या करते हैं’ इस भाव से-झूठ-मूठ की काम का बहाना करके विलम्ब कर रही थीं। जननी की यह उपेक्षा राम-श्याम सह नहीं सके, समीप जाकर इस प्रकार पकड़ कर उन्हें काम करने से रोक दिया। दूर खड़े व्रजेश्वर पुत्रों की यह छवि देख रहे हैं, आनन्द से लोट-पोट हो रहे हैं। पुत्रों के द्वारा रुद्ध अत्यन्त पुण्यशालिनी व्रजरानी के अन्तस्तल में भी आनन्द की धारा बह चलती है। ओह! व्रजेश्वरि! सचमुच तुम्हारे वे अनन्त पुण्यपुंज कैसे, किस जाति के हैं, जिनका यह पुरस्कार तुम्हें आज मिल रहा है?
- दोउ भैया मैया पै माँगत, दै री मैया, माखन रोटी।
- सुनत भावती सुतन की, झूठहिं धाम के काम अगोटी।।
- बल जू गह्यौ नासिका-मोती, कान्ह कुँवर गहि दृढ़ करि चोटी।
- मानौ हंस मोर भष लीन्हे, कबि उपमा बरनै कछु छोटी।।
- यह छबि देखि नंद-मन आनँद, अति सुख हँसत जात हैं लोटी।
- सूरदास मन मुदित जसोदा, भाग बड़े कर्मनि की मोटी।।
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