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‘स्तवनीय श्रीकृष्णचन्द्र! तुम्हें नमस्कार है। विश्व में एकमात्र कदनीय तुम्हीं हो नाथ! मैं तुम्हारी वन्दना कर रहा हूँ। अहा! नवजलधर-श्यामल अंग-कान्ति वाले प्रभु के लिये नमस्कार है! स्थिर सौदामनी सदृश पीताम्बरधारी के लिये प्रणाम है! गुन्जारचित कर्ण-भूषण से, चूड़ा के मयूर पिच्छ से परिशोभित मुखवाले के लिये मेरा नमन है। बनमाली वन्य पत्र-पुष्परचित मालाधारी के लये मेरी वन्दना है! नन्हे-से करतल पर दधि मिश्रित अन्न का गारस, कक्ष में वेत्र एवं श्रृंग, कटिकी फेट में वेणु इन असाधारण चिह्नों से अप्रतिम शोभाशाली के लिये नमस्कार है। इन लघु कोमल पादपद्म वाले प्रभु के लिये प्रणाम है। श्रीगोपेन्द्र तनय के लिये अनन्त वन्दन है। गोपाललाल के इस सुमधुर वेष के लिये सर्वख न्योछावर है। और कुछ नहीं नाथ! बस, तुम्हें ही अनन्त काल तक प्राप्त होने के लिये तुम्हारे ही शीतल शंतम चरण सरोज का अखण्ड आश्रय प्राप्त करने के लिये तुम्हें मेरा असंख्य नमस्कार है, श्रीकृष्णचन्द्र!’-इस प्रकार पितामह की स्तुति आरम्भ हुई-
- नौमीड्य तेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय।
- वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणुलक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय।।[1]
- अहो ईड्य! नव घन तन स्याम।
- तडिदिव पीत-बसन अभिराम।।
- मोर-पिच्छ-छबि छाजल भाल।
- नैन बिसाल, सु-उर बनमाल।।
- रस-पुंजा गुंजा अवतंस।
- कवल, विषान, बेत्र बर बंस।।
- मृदु पद बृंदा-बिपिन बिहार।
- नमो नमो व्रजराज कुमार।।
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