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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
44. वकासुर-संहार की कथा सुनकर यशोदा के मन में चिन्ता; व्रज में सर्वत्र श्रीकृष्ण लीलागान
गृहतोरण के समीप अपने हाथों में नीलमणि एवं बलराम के कर पल्लव धारण किये व्रजेश्वरी खड़ी हैं तथा आभीर-शिशु उन्हें वन में घटित आज की घटना सुना रहे हैं-
‘री मैया! इससे परे सुन्दर कौतुक और कोई हो ही नहीं सकता। यह पृथ्वी पर, भला, किसे विस्मित नहीं करेगा! आज हमारे सखा कन्हैया ने शत्रु पर ऐसे आक्रमण किया कि क्या बताऊँ! उस आक्रमण को देखकर ही हम लोगों ने जाना कि सचमुच कन्हैया भैया की भुजाओं में कितना बल है!’ व्रजेश्वरी के नेत्रों में, मुख पर एक साथ भीति, उत्कण्ठा, अनिष्ट शंका की छाया झलमल कर उठती है। क्षण भर पूर्व वन से लौटे हुए नीलसुन्दर की शोभा निहारने में ही मैया के प्राण तन्यम हो रहे थे। किंतु गोप-शिशुओं के इन शब्दों ने वह एकाग्रता हर ली; स्पन्दन आरम्भ हो गया पता नहीं क्या घटना हुई है। जननी पूरे मनोयोग से शिशुओं की बात सुनने लगती हैं। वे सब भी कहते ही जा रहे हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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