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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
40. श्रीनन्दनन्दन का वत्सचारण-महोत्सव तथा अन्यान्य गोपबालकों के साथ बलराम-श्याम का वत्सचारण के लिये पहली बार वन की ओर प्रस्थान तथा वन में सबके साथ छाकें आरोगना
ब्राह्ममुहूर्त आरम्भ होते ही व्रजपुर का, वृन्दावन का आकाश विविध मंगलवाद्यों की ध्वनि से, आभीर सुन्दरियों के मंगलगान से परिपूर्ण होने लग गया। आज यशोदा के नीलमणि वत्सचारण जो प्रारम्भ करेंगे। गोप, गोप-सुन्दरियाँ, वयस्क गोपशिशु-सभी प्रायः समस्त रात्रि जागते रहे हैं। व्रजेश्वर ने, व्रजरानी ने भी विश्राम नहीं किया। प्रत्येक प्रासाद को, तोरण, गृह द्वार, वीथी को सजाने में पुरवासी तन्मय थे, व्रजेष निरीक्षण में व्यस्त थे और व्रजरानी के लिये तो जागनाआ वश्यक हो गया था; क्योंकि उनके नीलमणि रह-रहकर नेत्र खोल देते, शय्या पर उठ बैठते। नीलमणि को प्रतीत होता-प्रभात हो गया है, अब शीघ्र गोवत्सों को लेकर वन की ओर चल देना है। उत्साहवश कभी-कभी तो शयनागार से भाग छूटने का प्रयत्न करते। जननी किसी प्रकार समझा बुझाकर पुनः सुला पातीं। इस अवस्था में जननी निद्रित कैसे हों? और अब बाजे बजने लगे हैं; फिर श्रीकृष्णचन्द्र धैर्य रख सकें, यह तो असम्भव है। मैया ने द्वार बद कर लिये थे, कपाट के ऊपर की साँकल लगा दी थी; अन्यथा श्रीकृष्णचन्द्र शय्या से कूद कर ऐसे भागे थे कि अतिशय सावधान रहने पर भी यशोदा मैया उन्हें एक बार तो नहीं ही पकड़ पातीं। द्वार रुद्ध है, नन्हें-से नीलमणि के लिये उस साँकल को छू लेना सम्भव नहीं है, इसीलिये मैया ने द्वार पर आते ही उन्हें पकड़ लिया है, नहीं तो, कहीं गोष्ठ में जाकर ही मैया नीलमणि के दर्शन पातीं। जो हो, जननी अनेकों भुलावे देकर श्रीकृष्णचन्द्र को जैसे-तैसे कुछ देर और रोक सकीं। जब बलराम आ गये, कुछ वयस्क गोपशिश भी आ पहुँचे, तब उनके संरक्षण में पुत्र को सौंपकर वत्सचारण महोत्सव की व्यवस्था में योगदान करने मैया स्वयं भी चल पड़ीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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