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निशीथ की नैसर्गिक शान्ति मधुपुर के अधीश्वर कंस को स्पर्श नहीं करती। वह तो इस समय भी उतना ही उद्विग्न, वैसा ही अशान्त है, जबकि समस्त मधुपर विश्रान्ति गोद में नीरव-निष्पन्द हो रहा है। उसके प्राणों में, मन मे, रक्त धमनियों में सतत एक झंझावत-सा कम्पन रहता है। उसकी भयावह चिन्ताओं के तार टूटते नहीं। मृत्युनिवारण की अनेकों नृशंस योजनाएँ बनती रहती हैं, वह इस सम्बन्ध में न जाने क्या-क्या सोचता रहता है। अभी भी सोच रहा है-
- हन्त! सत्यतासारेण देव्या वचनानुसारेण नन्दगोपडिम्भतादम्भ एव स कोऽपि गोपितः सम्भाव्यते। येन नूतनावयवेनापि दुस्सहमहसः पूतनादयः सहसा गाम्भीर्यावृतेन ;वीर्यातिशयेनालम्भनीयतां लभ्भिताः। त्रस्यति च नामधामवशान्मम हृदयम्। तस्मादसौ छलत एवोत्कलनीयः।[1]
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