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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
36. यात्रा के अन्त में यात्रियों का यमुना-तट पर रात्रि-विश्राम तथा रात्रि के शेष होने पर यमुना-पार जाने का उपक्रम
अस्तु, मध्यनिशा आती है। फिर क्षण-क्षण करके तृतीय याम का भी अवसान हो जाता है। व्रजपुरन्ध्रियाँ जाग उठती हैं, शय्या परित्यागकर पवित्र होकर अतिशय पवित्र वेष-भूषा धारण करती हैं। फिर उस वस्त्रमय गृह के अलिन्द देश (बाहर के चबूतरे) में चली जाती हैं। अलिन्द उस समय भी प्रज्वलित दीप से उद्भासित हो रहा है। वहीं से वास्तुपूजोपहार समर्पित करती हैं। यह करके दधिमन्थन में संलग्न होती हैं। मन्थन के समय तो उनकी दैनंदिनी चर्या ही है बाल्यलीला विहारी स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का गुणगान करना। अतः आज इस समय भी वे मधुर कण्ठ से गायन करने लगती हैं। साथ ही मन्थनक्रिया से स्पन्दित हुए उनके मणिमय मन्जु मंजीर, वलय आदि विविध भूषण मृदु, मधुर झंकार करने लगते हैं। इनमें ही मन्थनगगरी के अभ्यन्तर होन वाले मसृण गभीर नाद का, संगीत की सुन्दर स्वर-लहरी से निस्सृत मधुरिमा की पुट लेकर अतिशय ललित हुए ‘घर-घर’ रव का योग हो जाता है। ओह! फिर तो जगत के अशेष अमंगल को निर्मूल कर देने वाली इस ध्वनि के लिये कहना ही क्या है। दिगंगनाएँ प्रतिध्वनि करके इसका और भी विस्तार कर देती हैं। यह परम मंगलघोष अन्तरिक्ष के विमानों पर सुप्त सुरसुन्दरियों के कर्ण रन्ध्र में प्रविष्ट होने लगता है। अहा! यह अप्रतिम लीला-श्रवण सुख! इसकी तुलना में तो देव स्पर्श सुख नगण्य है, हालाहल की ज्वाला है। वे मुँह फेरकर उठ बैठती हैं। एकान्त भाव से गोपसुन्दरियों के इस सुधास्त्रावी मंगलगान को सुन-सुनकर आनन्द-रस-मग्न होने लगती हैं। उनके मन की समस्त वृत्तियाँ व्रज शिबिर की ओर से आने वाली इस मनोहर ध्वनि में ही विलीन हो जाती हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः)
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