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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
अनादिकाल से भक्तों के मनोमिलिन्द भगवान के मधुरमनोहर मुखचन्द्र के अनन्त सौरस्य-माघुर्य-सौन्दर्य का रसास्वादन कर रहे हैं। फिर आप कैसे कहते हो ‘अनाघ्रातं भृंगे’ समाधान है-
अरे, आपने सुना नहीं-
यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतस्तथापि तस्याडघ्रियुगं नवं नवम्।
पदे पदे का विरमेत तत्पदाच्चलापि यच्छीनं जहाति कर्हिचित्।।[1]
(यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण उन द्वारकास्थ पट्टमहिषियों के पास एकान्त में सर्वदा रहते थे तथापि उनके श्रीचरण कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये ही जान पड़ते। भला स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी जी जिन्हें एकक्षण के लिए भी कभी नहीं छोड़ती उनकी सन्निधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है? अर्थात किसी को भी नहीं हो सकती।)
भगवान यद्यपि भक्तों को एकान्त में मिलते हैं, अकेले में मिलते हैं। भक्त लोग भगवान के पादारविन्दसौगन्ध्यामृत का रसास्वादन करते हैं, श्रीअंग के अनन्त सौन्दर्य माधुर्य युक्त सौरस्य का रसास्वादन करते हैं। भगवान के मंगलमय मुखचन्द्र का और सुमधुर अधर सुधा रस का भी अनुभव करते हैं। तथापि उनका मंगलमय चरण-युगल प्रतिक्षण नया-नया ही प्रतीत होता है। राधारानी अनादि काल से अपने प्रियतम के मंगलमय मुखचन्द्र को निहारती हैं। मदन-मोहन श्यामसुन्दर कृष्ण चन्द्र अपनी राधारानी हृदयेश्वरी राजराजेश्वरी के मंगलमय मुखचन्द्र का अनन्त माधुर्य सौन्दर्य अनादि काल से अनुभव कर रहे हैं, पर अभी तक एक-दूसरे को पहचानते नहीं हैं। क्यों? पहचानना कहते हैं पूर्वानुभूत के अनुभव को। पूर्व में जिसका अनुभव हुआ है उसी का फिर अनुभव हो, उसको पहचान कहते हैं।
आपने देवदत्त को पटना में देखा और फिर काशी में देखकर बोले- यह वही देवदत्त है। ‘सोअयं’ (यह वही है) यह प्रत्यभिज्ञा (पूर्व विज्ञात के सम्मुख उसकी स्मृति) हुई। यहाँ तो श्रीकृष्ण राधारानी वृषभानुनन्दिनी के प्रतिक्षण नवनवायमान मंगलमय मुखचन्द्र का अनुभव कर रहे हैं। पूर्वक्षण में जो मुखचन्द्र के सौन्दर्य का अनुभव हुआ, द्वितीय क्षण में उससे कोटि-कोटिगुणित अधिक। तृतीय क्षण में उससे भी कोटि-कोटि गुणित अधिक। ऐसे ही श्रीराधारानी अपने प्राणनाथ प्रियतम परप्रेमास्पद मदन मोहन श्रीकृष्ण चन्द्र के पादारविन्द सौगन्ध्यामृत का आस्वादन करती हैं। प्रतिक्षण नव नवायमान प्रथम क्षण में जो अनुभव किया उससे उत्तर क्षण में अनन्त-अनन्त गुणित अधिक और उससे उत्तर क्षण में अनन्त-अनन्त गुणित अधिक। इस तरह पूर्वानुभूत का अनुभव कभी हुआ ही नहीं। नित्यनूतन स्वरूप है। इसलिए ठीक कहते हैं- ‘अनाघ्रातं भृंगेः’ बिल्कुल नया है, नवनवायमान है, इसलिए भक्तों के मनोमिलिन्दों ने अभी तक इस रस का आस्वादन नहीं किया। अभी तक व्यास-वसिष्ठादि मुनीन्द्र योगीन्द्र आदिकों ने इसके यशः सौरभ को दिग्निगन्त में विस्तीर्ण नहीं किया। यद्यपि अनादिकाल से व्यास-वसिष्ठादि भगवान के अनन्तयशः सौरभ को दिग्दिगन्त में विकीर्ण कर रहे हैं। तो भी उनको लगता है, यह चरित्र नया है।
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