भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 89

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अनादिकाल से भक्तों के मनोमिलिन्द भगवान के मधुरमनोहर मुखचन्द्र के अनन्त सौरस्य-माघुर्य-सौन्दर्य का रसास्वादन कर रहे हैं। फिर आप कैसे कहते हो ‘अनाघ्रातं भृंगे’ समाधान है- अरे, आपने सुना नहीं-

यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतस्तथापि तस्याडघ्रियुगं नवं नवम्।
पदे पदे का विरमेत तत्पदाच्चलापि यच्छीनं जहाति कर्हिचित्।।[1]

(यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण उन द्वारकास्थ पट्टमहिषियों के पास एकान्त में सर्वदा रहते थे तथापि उनके श्रीचरण कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये ही जान पड़ते। भला स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी जी जिन्हें एकक्षण के लिए भी कभी नहीं छोड़ती उनकी सन्निधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है? अर्थात किसी को भी नहीं हो सकती।)
भगवान यद्यपि भक्तों को एकान्त में मिलते हैं, अकेले में मिलते हैं। भक्त लोग भगवान के पादारविन्दसौगन्ध्यामृत का रसास्वादन करते हैं, श्रीअंग के अनन्त सौन्दर्य माधुर्य युक्त सौरस्य का रसास्वादन करते हैं। भगवान के मंगलमय मुखचन्द्र का और सुमधुर अधर सुधा रस का भी अनुभव करते हैं। तथापि उनका मंगलमय चरण-युगल प्रतिक्षण नया-नया ही प्रतीत होता है। राधारानी अनादि काल से अपने प्रियतम के मंगलमय मुखचन्द्र को निहारती हैं। मदन-मोहन श्यामसुन्दर कृष्ण चन्द्र अपनी राधारानी हृदयेश्वरी राजराजेश्वरी के मंगलमय मुखचन्द्र का अनन्त माधुर्य सौन्दर्य अनादि काल से अनुभव कर रहे हैं, पर अभी तक एक-दूसरे को पहचानते नहीं हैं। क्यों? पहचानना कहते हैं पूर्वानुभूत के अनुभव को। पूर्व में जिसका अनुभव हुआ है उसी का फिर अनुभव हो, उसको पहचान कहते हैं।
आपने देवदत्त को पटना में देखा और फिर काशी में देखकर बोले- यह वही देवदत्त है। ‘सोअयं’ (यह वही है) यह प्रत्यभिज्ञा (पूर्व विज्ञात के सम्मुख उसकी स्मृति) हुई। यहाँ तो श्रीकृष्ण राधारानी वृषभानुनन्दिनी के प्रतिक्षण नवनवायमान मंगलमय मुखचन्द्र का अनुभव कर रहे हैं। पूर्वक्षण में जो मुखचन्द्र के सौन्दर्य का अनुभव हुआ, द्वितीय क्षण में उससे कोटि-कोटिगुणित अधिक। तृतीय क्षण में उससे भी कोटि-कोटि गुणित अधिक। ऐसे ही श्रीराधारानी अपने प्राणनाथ प्रियतम परप्रेमास्पद मदन मोहन श्रीकृष्ण चन्द्र के पादारविन्द सौगन्ध्यामृत का आस्वादन करती हैं। प्रतिक्षण नव नवायमान प्रथम क्षण में जो अनुभव किया उससे उत्तर क्षण में अनन्त-अनन्त गुणित अधिक और उससे उत्तर क्षण में अनन्त-अनन्त गुणित अधिक। इस तरह पूर्वानुभूत का अनुभव कभी हुआ ही नहीं। नित्यनूतन स्वरूप है। इसलिए ठीक कहते हैं- ‘अनाघ्रातं भृंगेः’ बिल्कुल नया है, नवनवायमान है, इसलिए भक्तों के मनोमिलिन्दों ने अभी तक इस रस का आस्वादन नहीं किया। अभी तक व्यास-वसिष्ठादि मुनीन्द्र योगीन्द्र आदिकों ने इसके यशः सौरभ को दिग्निगन्त में विस्तीर्ण नहीं किया। यद्यपि अनादिकाल से व्यास-वसिष्ठादि भगवान के अनन्तयशः सौरभ को दिग्दिगन्त में विकीर्ण कर रहे हैं। तो भी उनको लगता है, यह चरित्र नया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (श्रीमद्भागवत 1/11/33)

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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