भागवत सुधा -करपात्री महाराजआज का जो भक्षक है, वही कल रक्षक हो सकता है। इसलिए गोस्वामी जी हिम्मत के साथ कहते हैं- जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। सारा प्रपंच परमात्मा का स्वरूप है। जीव भी परमात्मा का स्वरूप है। उसी का अंश है। नाक में फंसी हुई तो नाक काटना बुद्धिमानी नहीं। नाक बनी रहे, नाक की फुंसी दूर हो जाय। सिर में दर्द हुआ डाक्टर ने कहा- ‘सिर कटा दो, आपका सर-दर्द दूर हो जायगा।’ सिर कटाकर सिर दर्द दूर करना बुद्धिमानी नहीं। सिर बना रहे, सिर का दर्द दूर हो जाय। वस्तु स्थिति यह है कि प्राणिमात्र परमेश्वर की पवित्र सन्तान हैं, वह बनी रहे और उसकी दुष्टता दूर हो। इसलिए भक्तराज प्रह्नाद कहते हैं- स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां (नाथ, विश्व का कल्याण हो! दुष्टों की बुद्धि शुद्ध हो। सब प्राणियों में परस्पर सद्भावना हो। सभी एक दूसरे का हित चिन्तन करें, हमारा मन शुभमार्ग में प्रवृत्त हो और हम सबकी बुद्धि निष्काम भाव से भगवान श्री हरि में प्रवेश करें।) दुर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्। ( हे नाथ! दुर्जन प्राणी सज्जन बन जाँय। दुर्जन की दुर्जनता मिट जाय। सज्जन प्राणी शान्ति लाभ करें। शान्त प्राणी बन्धनों से मुक्त हो जायँ। विमुक्त प्राणी दूसरों की मुक्ति के काम में लग जाँय।) अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः। (नाथ! मैं आपका निष्काम सेवक हूँ। आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं, जैसे राजा और उसके सेवकों में प्रयोजन वश स्वामी-सेवक सम्बन्ध होता है, वैसा तो मेरा और आपका है नहीं।) यदि रासीश में कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ। (मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुँह मांगा वर देना ही चाहते हैं, तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (रामचरितमानस 1/7/ग)
- ↑ (रामचरितमानस 1/8/1-2)
- ↑ (रामचरितमानस 1/2/4-6)
- ↑ (रामचरितमानस 7/112 ख)
- ↑ (भागवत 5/18/9)
- ↑ (भागवत 7/10/6)
- ↑ (भागवत 7/10/7)
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