भागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प
रसिक लोक प्रियतम के सम्मिलन में हार व्यवधायक न हो इसलिये कण्ठ में हार भी नहीं धारण करते- ‘हारो नारोपितः कण्ठे मया विश्लेषभीरुणा’ (हनुमन्नाटक) इतना ही नहीं, कंचुकी का व्यवधान ही उन्हें असह्य होता है, यही नहीं कि हार और कंचुकी का व्यवधान ही उन्हें असह्य हो, रसोंद्रेक में जो रोमांच होता है उसका भी व्यवधान उन्हें असह्य होता है। जहाँ रोमांच का व्यवधान असहस्य होता है वहाँ कंचुकी का व्यवधान भला कैसे सह्य होगा? लेकिन जल और तरंग का जो संश्लेष है, उसमें तो हार, कंचुकि और रोमांच का भी व्यवधान नहीं। माना जाता है कि होता है। ‘क्लीं’ में क का अर्थ है श्रीकृष्णचन्द्रपरमानन्दकन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्रनन्दन; ‘ई’ दीर्घ चतुर्थस्वर का अर्थ तन्त्रों में काम कला है। काम कला का अभिप्राय है उत्कृष्ट प्रीति और बिन्दु का अर्थ है रसोद्रेक। इस तरह क= अचिन्त्य अनन्त परमानन्द सुधासिन्धु श्रीकृष्ण; ल्= सुधासिन्धु के माधुर्यसार सर्वस्व की अधिष्ठात्री राधारानी; ई=आनन्दसार सर्वस्व श्रीकृष्ण और माधुर्यसार सर्वस्व श्री राधारानी दोनों का परस्पर प्रेम; श्रीराधाकृष्ण के परस्पर सम्मिलन से प्रादुर्भूत रसोद्रेक ‘क्लीं’ का अर्थ है। इस तरह काम बीज ‘क्लीं’ का अर्थ है श्री राधाकृष्ण के परस्पर प्रेमपूर्ण सम्मिलन से प्रादुर्भूत लोकोत्तर रसोद्रेक। महावाणीकार कहते हैं- ‘सुधि हू सुधि बिसर गई’, इसी प्रकार कहावत है- ‘करुणा भी करुणा से आक्रान्त हो गई’, ‘वीर रस में वीर रस का उद्रेक हो गया, इसी तरह साक्षात् जो पूर्णानुराग रससार सर्वस्व वस्तु है उसमें रसोद्रेक-यह तो जल और तरंग से भी अत्यन्त अन्तरंग वस्तु है। इस तहर श्रीराधा और कृष्ण का सम्मिलन जल और तरंग से भी अत्यधिक अन्तरंग है, सर्वागीण और सर्वाधिक अन्तरंग वस्तु है। उसी रसोद्रेक की अभिव्यक्ति के लिये कहा गया है- चूतप्रवालबर्हस्तबकोत्पलाब्ज- (जब राम-श्याम आम की नयी कोपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रगं-विरंगे कमल और कुमुद की माला धारण कर लेत हैं, श्रीकृष्ण के सांवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा विचित्र बन जाता है। ग्वाल बालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचों-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊं उस समय उनकी कितनी शोभा होता है?) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 10.21.8
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