विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प 7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूपपरमाण्वेकरूपन्तु चित्तं न विषयाकृति। ‘‘मन परमाणु रूप, एक तथा नित्य है इसलिए वह विभिन्न विषयाकार में परिणत नहीं हो सकता’’ इत्यादि अन्य लोगों-तार्किकों, प्राभाकरों और बौद्धों का मत अप्रामाणिक होने से उपेक्षणीय है।।) भगवद् विषयक स्नेह से, भगवद् विषयक द्वेष से चित्त में द्रवता आती है। उदाहरण यह लो। आप यहाँ आये। बहुत-सी वस्तुओं को आपने देखा, कोई याद है आपको और कोई याद भी नहीं है। रास्ते में कोई कामिनी मिली हो, उसके दर्शन से आपका चित्त द्रवीभूत हो गया हो, चित्त में अगर कामिनी का आकार अंकित हो गया हो तो कथा सुनते हुए भी मन में होगा ‘आह-कैसा? आप उसे भूलेंगे नहीं। कही सर्प मिला हो, उसके दर्शन से भय पैदा हुआ हो। भय से द्रवीभूत चित्त में सर्प की आकृति अंकित हो गई हो तो वह भूलती नहीं। दुश्मन के दर्शन से द्वैष उत्पन्न होता है। दुश्मन की आकृति चित्त में पड़ी हो तो वह भूलती नहीं। जिसके दर्शन से आपको काम नहीं हुआ, स्नेह नहीं हुआ, भय नहीं हुआ, द्वेष नहीं, हुआ, उस वस्तु के दर्शन से आपके चित्त में द्रवता नहीं हुई, उसके स्वरूप का आकार आपके चित्त में अंकित नहीं हुआ। यही उसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इस तरह जिसके प्रति स्नेह होता है, जिसके प्रति काम होता है, उसके दर्शन से मन में द्रवता आ जाती है, कोमलता आ जाती है। द्रवीभूत अन्तःकरण जिस समय उस वस्तु को ग्रहण करता है, तब उसमें स्थायित्व होता है। इसलिए अग्नि के सम्बन्ध से द्रवीभूत लाक्षा (लाह) में हरिद्रा रंग डाल दो, वह लाक्षा से एकदम एकम्-एक हो जायगा। इसी तरह श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द मदनमोहन ब्रजेन्द्र नन्दन के दर्शन से किसी के हृदय में काम पैदा हुआ, अन्तःकरण द्रवीभूत हो गया। किसी का मन काम से, किसी का स्नेह से तो किसी का भय से पिघलता है कंस का मन भय से पिघल गया। आसीनः संविशस्तिष्ठान् भुंजानः पर्यटन् महीम्। वह उठते-उठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते-सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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