भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 219

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

सप्तम-पुरुष

1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त

इन्द्र प्रायः त्यागी नहीं होते। पाणिनि ने श्वन्[1],युवन्[2] और मघवन्[3] इन अन्नन्त शब्दों को एक जोडे़ में जोड़ा- श्व[4] युवमघोनामतद्धिते [5][6] तुलसीदास जी ने भी उसका उल्लेख किया है-

लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस श्वान् मघवान जुबानू।।[7]
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती।।[8]
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहिं डेराहीं।।[9]
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज।।[10]

पकरिपु[11] की रीति-नीति कौए और कुत्ते के समान है। कुटिल काक के समान ही तो वह सबसे डरता है। श्वान के समान उसकी नीति और करतूत है। महर्षि तप करने लगते हैं तो इन्द्र सोचने लगता है ‘हमारा सिंहासन तो कहीं नहीं ले लेंगे?’ श्वान सूखी हड्डी चबा रहा हो तो सिंह को आते देख हड्डी लेकर भागता है, उसे डर लगता है कि कहीं यह सिंह हमारी सूखी हड्डी न छींन ले। वह समझता नहीं कि सिंह तो स्वयं जो शिकार खेलता है, उसी को ग्रहण करता है, मरा हुआ शिकार भी नहीं लेता तो सूखी हड्डी काहेको क्यों लेगा? नर-नारायण भगवान तप कर रहे थे। इन्द्र ने भेजा अपने गणों को। अप्सरायें गयीं भगवान नर-नारायण को ठगने के लिये। भगवान नर-नारायण ने उन सबका स्वागत किया। अर्ध्य, पाद्य? मधुपर्कादि से विधिवत नर-नारायण ने काम सहित अप्सराओं का पूजन किया। फिर कहा- ‘अब आप लोग कुछ माँगें, हम आपको दें। वे पानी-पानी हो गये। अप्सराओं ने कहा- ‘भगवन। क्या माँगें? जैसा सद्योजात बालिका अपने हावभाव कटाक्षों से अपने नब्बे वर्ष के बाबा, परबाबा को मोहित करना चाहे तो उसकी मूर्खता ही है; ऐसे ही आप सर्वेश्वर सर्वान्तरात्मा सर्वद्रष्टा हैं, आप सबके माता-पिता हैं हम आपको मोहने आयी हैं, ठगने।’

कामं दहन्ति कृतिनो ननु रोष्दृष्ट्या
रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम्।
सोअयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति
कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत।।[12]

कुछ महानुभाव अपनी क्रोध भरी दृष्टि से काम को जला देते हैं, परन्तु अपने आपको जलाने वाले असह्य क्रोध को वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायण के निर्मल हृदय में प्रवेश करने के पहले ही भय के मारे काँप जाता है। फिर भला उनके हृदय में काम का प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है?)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुत्ता
  2. युवा=जवान
  3. इन्द्र
  4. इस सूत्र के सम्बन्ध में उक्ति-प्रत्युक्ति रूप में एक रोचक सूक्ति प्रसिद्ध है, पूर्वाध में प्रश्न है आप उत्तरार्ध में उत्तर। काचं मणि काश्चनमेकसूत्रे ग्रथ्नासि बाले किमिदं विचित्रम्।
    विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह।।
    अर्थ- माला गूँथती बाला से यह प्रश्न किया गया- ‘तुम काँच, मणि और सोन को एक सूत्र में क्यों गूँथ रही हो। यह क्या गजब कर रही हो।’ उसने उत्तर दिया- ‘विचारवान् पाणिनि मुनि ने भी तो एक सूत्र में कुत्ते, युवा और इन्द्र को कहा है- घसीट मारा है। ‘अर्थात् जब बुद्धिमान् पाणिनि जैसे लोग भी असमान वस्तुओं को एक स्थान में (बैठाते हैं तो मैं तो बाला अज्ञान) ऐसा करूँ, इसमें भला आश्चर्य की कौन-सी बात है?’
  5. 6.4.133
  6. सम्प्रसारण विधि सूत्र
  7. रामचरितमानस 2.301.8
  8. रामचरितमानस 2.301.2
  9. रामचरितमानस 1.124.8
  10. रामचरितमानस 1.125
  11. इन्द्र
  12. भागवते 2.7.7

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क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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