विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 2. माया संतरण का अमोघ उपाय‘इयं हि स्वैरिणीव परप्रतारणाय गुणान्गृह्नाव्यतो हन्तव्येति’ = जैसे स्वैरिणी नाना प्रकार का अंगराग धारण करती है, भूषण-वसन-अलंकारों से विभूषित सुसज्जिंत होती है,उसका उद्देश्य दूसरों को प्रतारण करना होता है, वैसे ही यह माया भी दूसरों को प्रतारण करने के लिये ही गुणों को ग्रहण किये है, इसलिये यह मारने योग्य है। प्रभो! आप इसे अवश्य मारो और इसके चंगुल से जीवों को बचाओ। लेकिन भगवान ने माया को मारा नहीं। क्यों नहीं मारा? विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेअमुया। (यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूर से ही भाग जाती है। संसार के अज्ञानी जन इसी से मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं।) माया भगवान के सामने खड़ी होने में शरमाती-लजाती है। क्यों लजाती है? एक तो वेदान्त वाले-बोलते हैं कि प्रचण्ड मार्तण्डमण्डल में कभी तमिस्त्रा रात्रि रहती नहीं, वैसे ही स्वप्रकाश परात्पर परब्रह्म में माया नाम की कोई चीज वस्तुतः होती ही नहीं फिर भी जैसे प्रचण्ड मार्तण्डमण्डल में उलूक को अन्धकार, घोर अन्धकार प्रतीत होता है, वैसे ही अज्ञ जनों को संसार में अहं-मम भाव होता है। उलूक से पूछो, ‘प्रचण्ड मार्तण्ड मण्डल में अन्धकार है, इनमें कोई गवाह दो’ तो वह कहता है चमगादड़ साहब हमारे गवाह हैं। इसी तरह मायामोहित व्यक्ति का समर्थन मायामोहित इतर प्राणी करते हैं। यह एक दृष्टि है- उलूकस्य यथा भानुरन्धकारः प्रतीयते। दूसरी दृष्टि है- माया भगवान के सामने खड़ी होने में यह सोचकर लजाती है कि हम भगवान को तो खूब प्रणाम करती हैं, भजन करती हैं, लेकिन भगवान के अंशो-जीवों को खूब सताती है। हाँ तो किसी ने माया से कहा- ‘‘माया देवी आप जब स्वयं समझती हो कि भगवान के अंशभूत जीवों को सताना ठीक नहीं, तब कृपाकर उन्हें बकसो।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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