भागवत सुधा -करपात्री महाराजहँसली ढंकी हुई, छाती चैड़ी और उभरी हुई, नाभि भँवर के समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर त्रिवली से युक्त था। लम्बी-लम्बी भुजाएँ थीं, मुख पर घुँघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेष में वे श्रेष्ठ देवता के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। श्याम रंग था। चित्त को चुराने वाली भरी जवानी थी। वे शरीर की छँटा और मधुर मुस्कान से स्त्रियों को सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेज को छिपा रक्खा था, फिर भी उनके लक्षण जानने वाले मुनियों ने उन्हें पहचान लिया और वे सबके-सब अपने आसन छोड़कर उनके सम्मान के लिये उठ खड़े हुए। राजा परिक्षित ने अतिथि रूप से पधारे हुए श्रीशुकदेव जी को सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरूप को न जानने वाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी महिमा देखकर वहाँ से लौट गये, सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेव जी श्रेष्ठ आसन पर विराजमान हुए।) स संवृतस्तत्र महान् महीयसां ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसंघै:। (ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षियों के समूह से आवृत श्रीशुकदेव जी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तव में ये महात्माओं में भी आदरणीय थे। जब अकुण्ठबुद्धि श्रीशुकदेव जी शान्तभाव से बैठ गये, तब भगवान के परम भक्त परीक्षत ने उनके समीप आकर और चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। इसके पश्चात बड़ी मधुर वाणी से उनके यह पूछा।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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