भागवत सुधा -करपात्री महाराजइस श्लोक की व्याख्या करते हुए भगवान् भाष्यकारादि ने अवतार का प्रयोजन[1] सर्वसाधारण के कल्याणोपयुक्त धर्म की स्थापना ही बतलाया है। इस प्रकार यद्यपि उनके प्रादुर्भाव का प्रयोजन अमलात्माओं के भक्तियोग का विधान करना ही है। तथापि अवान्तर प्रयोजन सन्मार्गस्थ साधुओं की रक्षा और वैदिक- स्मार्त्तादि कर्मो की स्थापना भी हो सकता है। भगवान् में लोक शिक्षादि भी देखे ही जाते हैं। भगवान् तो सर्व नियन्ता हैं, इसलिए उसका प्रादुर्भाव आरुरुक्षुओं के लिए भी था और योगारूढ़ों के लिए भी। आरुरुक्षुओं का वैदिक-स्मार्त्त कर्मों में प्रवृत्त करना था और योगारूढ़ों को सर्वकर्मसंन्यास पूर्वक केवल भगवन्निष्ठा में नियुक्त करना था। इस तरह माता कुन्ती ने भगवान् से जहाँ विपत्ति का वरदान माँगा, वहाँ भगवदवतार के अनन्यथा सिद्ध प्रयोजन का भी रहस्योद्घाटन[2]किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तव जन्म कदा किमर्थ चेत्युच्यते-यदेति। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्हानिर्वर्णा श्रमादिलक्षणस्य प्राणिनामभ्युदयनिःश्रेयससाधनस्य भवति भारत, अभ्युत्थान मुद्भवोअर्धमस्प तदा-तदा आत्मानं सृजाम्यहं मायया। किमर्थर्म-परित्राणायेति। परित्राणाय परिरक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानां विनाशाय च दुष्कृतां पापकारिणाम्। किं च धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सभ्यवस्थापनं तदर्थ संभवामि युगे-युगे प्रति युगम्। (शंकरभाष्य गीता 4/7,8)
- ↑ विशेष जानकारी के लिए राधाकृष्णा धानुका प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित (सन 1980) पूज्यवाद श्रीस्वामी करपात्री जी महाराज द्वारा लिखित ‘भक्ति सुधा पृष्ठ 679 से 689 तक अवलोकन करिये।
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