भागवत सुधा -करपात्री महाराज( इसे संयद्वाम’ ऐसा कहते हैं, क्योंकि सम्पूर्ण सेवनीय वस्तुएँ सब ओर से इसे ही प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार जानता है, उसे सम्पूर्ण सेवनीय वस्तुएँ सब ओर से प्राप्त होती हैं।) जनक नन्दिनी जानकी भगवती रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान के साथ, लखन (लक्ष्मण) लाल के साथ जा रहीं थी। तो चित्रकूट के आसपास की ग्रामवधूटियाँ इकट्ठी हो गई। उन्होंने प्रश्न किया- राजकुँअर दोउ सहज सलोने। इन ते लही दुति मरकत सोने।। ‘सुमुखि! इनमें कौन तुम्हारे पति हैं?’ तब उन्होंने अपने देवर का वर्णन किया- ये जो बड़े दिव्य सौन्दर्य पूर्ण हैं, कनक की द्युति-कान्ति इनके अंग के सामने फीकी लगती है, हमारे देवर हैं- स्कुचि सप्रेम बोल मृग नयनी। बोली मधुर वचन पिकबयनी।। अपने प्रियतम को कहना था, कैसे कहतीं? बहुरि बदनु विधु अंचल ढ़ाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥ श्रीसीता ने ‘ये हमारे हस्वेन्ड हैं’ ऐसा नहीं बताया। ऐसा बताने में कोई रस भी नहीं। आँचल से अपने मुखचन्द्र को ढाँक करके श्रीरामभद्र को निहारते हुए इशारे से अर्थात मौन रहते हुए ही अपने पति को बताया। किसी सभा में एक एक नवोढा पत्नी का पति बैठा है। सभा में उसकी सखियाँ पूछती हैं- ‘कहो सखी! इनमें कौन हैं तुम्हारे। क्या ये हैं?’
नवोढा़- उहूँ। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा। बट तरु के मूल में यह आश्चर्य दृश्य है कि शिष्यगत तो वृद्ध हैं और गुरु युवा। गुरु का व्याख्यान तो मौन है और शिष्य संशयमुक्त हो गये हैं।।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्यको0 2/3/6
- ↑ रामचरितमानस 1/143/5
- ↑ रामचरितमानस 2/115/8
- ↑ रामचरितमानस 2/116/9
- ↑ रामचरितमानस 2/116/4,5
- ↑ रामचरितमानस 2/116/6,7
- ↑ दक्षिणमूर्तिस्तोत्र 12
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