भागवत सुधा -करपात्री महाराजयदि शास्त्र नहीं प्रमाण है तो पाप होने में ही क्या प्रमाण है? व्यास भगवान् ने गर्जकर कहा- ‘नाम्नोस्ति यावती शक्तिः’ भगवान के नाम में जितना पाप मिटाने की शक्ति है, पापी उतना पाप कर ही नहीं सकता। एक बार बोलो प्रेम से श्रीराम! श्रीराम!! श्रीकृष्ण!! श्रीकृष्ण!! विश्वास करो तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर के युग-युगान्तर कल्प कल्पान्तर के पाप नष्ट हो गये। चेतन्य महाप्रभु ने यही किया- नाम का दान किया। वे जोर से चिल्लाते थे, जिससे कि पशुओं और पक्षियों का भी, कीड़ों और मकोड़ों का भी, वृक्षों का भी जो किसी तरह से भी नाम से सम्पृक्त हो जाते हैं, सबका कल्याण हो जाय। हाँ लेकिन एक बात हन समझना ‘भगवान के नाम में पाप मिटाने की शक्ति है ही, थोड़ा पाप और करलो। अन्त में भगवन्नाम कह लेंगे, सब पांप खत्म हो जायगा।’ नहीं-नहीं तुलसीदास कहते हैं- अब लौं नसानी अब न नसैहों। भूल-चूक से जी गड़बड़ी हुर्ह सो हुई। ‘अब लौं जो गड़बड़ानी सो गड़बड़ानी अब न गड़बडै़हो, इस तरह से भगवान के मंगलमय नाम का आश्रयण करो और आशा कल्पलता को अंकुरित करो भगवान मिलेंगे। प्रश्न उठता है जो भगवान जीव के सखा हैं, स्नेही हैं, अत्यन्त सन्निकट हैं, अनात्मक वर्ग से अलिप्त हैं, वे कौन हैं सगुण या निर्गुण? हमारे शैवाचार्य, वैष्णवाचार्य कहते हैं- प्राकृत गुणगण हीन होने के कारण भगवान निर्गुण हैं और अचिन्त्य दिव्य कल्याण गुणगणों के होने के कारण भगवान सगुण हैं। यह सगुण-निर्गुण की परिभाषा है। लेकिन दार्शनिक-नैयायिक लोग कहते हैं- ‘निर्घटं भूतलं’ कहने के लिए घटत्वावच्छिन्न प्रतियोगिता का अभाव भी चाहिए। घटत्वावच्छिन्न घट प्रतियोगी है। एक भी घट रहे तो ‘निर्घटं भूतलं’ यह व्यवहार (शब्द प्रयोग) ही नहीं होगा। इसलिए घटत्वावच्न्निघटसामान्य है प्रतियोगी जिसका ऐसे अभाव से ही ‘निर्घटं भूतलं’ बनता है। इसी तरह गुणत्वावच्छिन्न गुणप्रतियोगिता का भाव चाहिए। गुण सामान्य है प्रतियोगी जिसका एवं भूत इस प्रकार के अभाव को ही निर्गुण कहते हैं। यह कह दो सीधे-सीधे कि हम निर्गुण मानते ही नहीं, तब तो बात समझ में आ जाय। लेकिन अमुक-अमुक गुण नहीं हैं तो निर्गुण बन जाएँगे ईश्वर, यह बात दार्शनिक दृष्टि से संगत नहीं। सगुणवादी कहते हैं- लेकिन बहुत रूखी बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विनय पत्रिका 105
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