भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वसुदेव ‘आनकदुन्दुभि’
श्री शूरसेन जी का भवन क्या गृहस्थ का भवन था? वह तो देव मन्दिर था और उसमें वे साक्षात देव विराज मान रहते थे। प्रलम्बकाय, प्रशस्त-भाल, नित्य कृपापूरित दीर्घ लोचन, अजानु विशाल बाहु, विशाल वक्ष उज्वल केश-श्मश्रु। शरीर में वली पड़ी थी सर्वत्र; किन्तु वार्धक्य में भी सम्पूर्ण तारुण्य की शक्ति थी उनमें। सब बालक ही नही, महाराज उग्रसेन तक नियम-पूर्वक प्रतिदिन उनके चरणों में प्रणाम करने उनके भवन में पहुँचते थे। वे कदाचित ही कुछ बोलते थे। केवल सुप्रसन्न सृष्टि से देख लेते थे। एकमात्र भगवान वासुदेव के पहुँचने पर कहते थे- ‘तुम आये।’ ‘कोई सेवा तात?’ प्राय: भगवान वासुदेव पूछते थे चरण-वन्दना करके। ‘अच्छा!’ उनके नेत्रों से अश्रु झरने लगते थे और उनका दक्षिण कर श्रीकृष्ण की अलकों पर घूमता था। वे तपोवन नहीं गये; किन्तु भवन को तपोवन बना रखा था उन्होंने। उनके–कक्ष में कोई उपकरण नहीं रहता था। एक दर्भासन अवश्य था शयन के लिए; पर पता नहीं, वे शयन कब करते थे। उन्होंने स्वयं प्रांगण में तुलसी तथा थोड़े पुष्प लगा रखे थे। सेवकों की बात तो दूर-बालकों में भी किसी को वहाँ कोई सेवा करने वे नहीं देते थे। स्वयं उन वीरुधों की सेवा करने या आराधना में लगे रहते थे। केवल माता रोहिणी थीं कि हठपूर्वक स्वयं उनका भवन नित्य स्वच्छ कर आती थीं और वे भी अतिशय वात्सल्य वश उन्हें रोक नहीं पाते थे। आराधना-केवल आराधना ही उनका जीवन बन गयी थी। नगर में, राजभवन में क्या हो रहा है, उन्हें कुछ पता नहीं रहता था। कंस जब तक जीवित रहा, उसे भी साहस नहीं हुआ कि उनको कभी राजसभा में बुलावे या उनके गृह में जाय। उनके एकान्त जीवन में उसे बाधा देने का न प्रयोजन आया, न उसे स्मरण हुआ। कंस के न रहने पर भी वे प्राय: ऐसे ही रहे, जैसे नगर में हो ही नहीं। उनके ज्येष्ठ पुत्र ने अपने ऋषिकल्प पिता का सम्पूर्ण शील-स्वभाव पाया था। निखिल ब्रह्माण्ड नायक को भी जिन्हें पिता बनाने का लोभ लगा, उनकी गुण-गरिमा का कोई भी कैसे अनुमान कर सकता है। अठारह पत्नियां थीं उनके और वे सबके पुत्रों के लिए अपनी ही माता थीं। महाराज उग्रसेन के अग्रज देवक जी के सात कन्यायें थीं- धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा ओर देवकी। इन सातों का विवाह तो देवक जी ने क्रमश: वसुदेव जी से किया ही था; पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला, इन्दिरा, वैशाखी, सुनाम्नी, वृकदेवी और सुतनु और थीं। इनमें से राहिणी, इन्दिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्ना ये पाँच तो पौरववंशीया ही हैं। शेष छ: विभिन्न राजाकुलों से आयी थीं। इनकी सन्तानों के साथ वसुदेव जी के अनुजों की सन्तानों का एक बहुत बड़ा समुदाय था। सब मातायें समान थीं और उस भवन में देवरानियां अपनी जेठानियों की सगी बहिनें ही रहीं। सभी माताओं ने सबके बच्चों को स्वगर्भजात का वात्सल्य ही सदा दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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