भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वसुदेव ‘आनकदुन्दुभि’
अन्त: पुर बालकों से भरा रहता था; किन्तु माता देवकी अपने स्वामी के समीप ही प्राय: रहती थीं। वे सबसे छोटी थीं- उनके हृदय से यह व्यथा कभी नहीं गयी कि उनके कारण उनके स्वामी को बन्दी-जीवन दीर्घकाल तक व्यतीत करना पड़ा। उनसे किसी उनकी सपत्नी ने कभी स्पर्धा नहीं की। सब उनको अनुजा का स्नेह देती रहती थीं; किन्तु ये दिव्य दम्पत्ति तो जैसे धरा पर आराधना करने ही आये थे। भगवान वासुदेव के पिता का सदन-उनका निजी कक्ष भी सदा असज्जप्राय ही रहा। पितामह के समान ही यह गृह भी मन्दिर ही था और इसमें भी जाते समय सबमें श्रद्धा-विनम्रता स्वत: आ जाया करती थी। आराधना के अतिरिक्त महाभागवत वसुदेव जी को जैसे कोई कार्य नहीं रह गया था। उनको नगर से, प्रशासन से और परिवार से भी सम्यक श्रद्धा मिली थी; किन्तु वे प्राय: अन्तर्मुख रहते थे। कहीं काई वाह्य परिस्थिति उन्हें विचलित नहीं करती थी। इस सदन में भी दास-दासियों का प्रवेश नहीं था। देव की माता ने तो द्वारिका में भी सदन की कोई सेवा अपनी किसी पुत्र वधू को नहीं करने दी। वे स्वयं ही गृहमार्जन से लेकर समस्त सेवा यहाँ करती थीं। राजसदन के भीतर भी तपोवन हो सकते हैं और उनमें भी भगवत्प्राण तापस रहते हैं, यह केवल वे समझ सकते हैं, जिन्होंने मथुरा या द्वारिका में पितामह शूरसेनजी या वसुदेवजी का निज सदन देखा है। दोनों सदनों में केवल एक अन्तर था। इस सदन में प्राय: पद-वन्दन के लिए जब अग्रज के साथ भगवान वासुदेव पहुँचते थे, माता-पिता दोनों ही भाव-विह्वल हो जाते थे। दोनों क्रमश: दोनों पुत्रों को अंक में बैठा लेते थे। उनके अश्रु-प्रवाह से गौर-श्याम की अलकें आर्द्र हो जाती थीं। पुलकपूरित शरीर, वात्यसल्य रुद्ध कण्ठ– स्नेह के उस निर्बन्ध प्रवाह का वर्णन सम्भव नहीं है। राम-श्याम उनके अंक में पहुँचकर सदा शिशु बन जाते थे। वे अनन्तानन्त लोकमहेश्वर वहाँ जैसे कुछ जानते नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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