भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीरणछोड़राय
सम्मुख ही अत्युच्च पर्वत था। महागिरि प्रवर्षण। पूरे ग्यारह योजन ऊंचा पर्वत। यह प्रवर्षण गिरि कहाँ था आज तक पता नहीं है। ग्यारह योजन ऊंचा पर्वत मथुरा से द्वारिका की ओर कोई है नहीं, लेकिन पर्वत पर सदा वर्षा होती थी, अत: यह समुद्र तटीय होना चाहिए। गिरिनार का कोई शिखर संभव है। पर्वत भूमि में धंसते हैं और उनकी ऊंचाई घट जाती है। ऐसा ही कुछ इस पर्वत के साथ पीछे हुआ होगा। पर्वत के पास तक जहाँ तक रथों का आना संभव था, जहाँ से वृक्ष और झाड़ियां सघन हो गई थीं, मगधराज के रथों को रुक जाना पड़ा। सारथियों को छोड़ कर सब रथारोही सैनिक शस्त्र लेकर उतर पड़े। दोनों भाई इस सघन वन से घिरे पर्वत में कहीं छिप गए। जरासन्ध ने कहा – इसमें उनको ढूंढ़ना तो बड़े भारी पुआल के ढेर में सुई को ढूंढ़ने जैसा है। हम लोग गोमन्तक पर्वत के समान इसे भी चारों और सूखे काष्ठ, तृणादि से घेकर कर जला दें। आजकल पर्वत के वन में पतझड़ चल रहा है। अग्नि शिखर तक फैल जाएगी। दोनों वसुदेव पुत्र इतने ऊंचे पर्वत से कूद नहीं सकते। पर्वत के पाद प्रदेश में खड़े इन लोगों को पर्वत का अत्यंत ऊंचा शिखरीय भाग दीख नहीं रहा था। अन्यथा यह देख लेते कि वहाँ हरा कानन है। इस समय भी शिखर पर मेघ छाए हैं। पर्वत के शिखर पर तो प्राय: वर्षा होती रहती है। जरासन्ध के साथ आए सैनिक सारथी सब जुट गए काष्ठ तथा तृण एकत्र करने में। इस बार इन्होंने रथों में अश्व जोड़ लिए अग्नि लगाने से पूर्व। चारों और अग्नि लगा कर रथों में बैठ गए और पीछे पर्याप्त दूरी तक रथों को हटा लाए, जिससे प्रर्वत से गिरती शिलाएं, जल कर टूटते वृक्ष, अधजले झुलसते क्रोध में भरे दौड़ते पशु वन इन लोगों के लिए प्राण घातक न बन सकें। पर्वत के वनों में पतझड़ से सर्वत्र सूखे पत्ते फैले थे। चारों ओर एक साथ अग्नि लगाई थी। अग्नि सूखे पत्तों का सहारा पाकर बहुत वेग से फैलती चली गई। पर्वत ऊंची लपटों और धुएं से ढक गया। रथों पर चढ़ कर पीछे जाकर जरासन्ध तथा उसके साथियों- सैनिकों को पर्वत से जलते, झुलसते पशुओं की चिल्लाहट मात्र सुनाई पड़ती रही। धुएं और लपटों से घिरे पर्वत में वे कोस भर दूर से देख भी क्या सकते थे। श्री कृष्ण चंद्र और बलराम पर्वत के वन में दौड़ते हुए प्रविष्ठ हुए थे। वे पर्वत पर चढ़ते ही चले गए थे। उन्होंने बीच में रुक कर नीचे की गतिविधि की ओर देखना भी अनावश्यक समझा। शिखर पर पहुँच कर ही दोनों भाई रुके। वहाँ अत्यंत हरा भरा सघन वन था। शीतल पवन चल रही थी। गगन में शिखर से सटे मेघ छाए थे और वे सीकरों की वर्षा करके दोनों भाइयों का स्वागत कर रहे थे। वहाँ थोड़े से विश्राम ने संपूर्ण श्रान्ति दूर कर दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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