भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वैर–बीज
कहते हैं कि महाशिवरात्रि कालरात्रि है। उस दिन प्रदोष काल में सूर्यास्त के लगभग मथुरा में यमुना-तट पर चिताओं की पंक्ति धू-धू करके जल रही थी। कंस के पाप-उत्पीड़न की चितायें जल गयीं उसी दिन। मुकुटधारी नरेश को सूतक नहीं लगा। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि मथुरा का सिंहासन दस दिन रिक्त रहे। महाराज उग्रसेन के मस्तक पर उन्होंने इसी से मल्लशाला में ही राजमुकुट रख दिया था। अपने पुत्रों का अग्नि-संस्कार उग्रसेन को ही करना था; क्योंकि उनके सब पुत्र नि:सन्तान मरे थे; किन्तु मुकुटधारण करके अन्तिम संस्कार करने से उन्हें सूतक दोष नहीं होना था। रक्त, स्वेद, गजमद, मल्लशाला की धूलि–ये सब अब तक श्याम-बलराम के शरीर पर थे। सूखकर भी गजमद और रक्तके चिह्न दीखते ही थे। इनसे दूषित, प्रात: से अब तक के लगातार श्रम से क्लान्त-श्रान्त शरीर यमुना स्नान करके सांयकाल दोनों भाइयों का स्वस्थ हुआ। यादवों ने, गोपों ने, प्राय: सभी नागरिकों ने यमुना स्नान किया। नारियों ने पृथक स्नान किया कंस और उसके भाइयों की विधवाओं के साथ। यमुना-तट से लौटते ही महाराज उग्रसेन व्यस्त हो गये। बलराम-श्रीकृष्ण छाया की भाँति साथ हो गये उनके। इस समय पुत्रशोक-सन्तप्त महाराज को इस साथ की अत्यन्त आवश्यकता थी। वे वसुदेव जी से मिलने के लिए जाते; किन्तु वसुदेव जी तो श्मशान से राजसदन साथ ही आये। दोनों को ही दोनों से क्षमा माँगनी थी। दोनों परम विनम्र। दोनों ने विगत को भूल जाना ही श्रेयस्कर माना। उग्रसेन जी ने आग्रह करके व्रजराज को गोपों के साथ नगर में एक विशाल भवन में ठहराया। वहाँ उनके साथ के छकड़ों के रखने तथा वृषभों की पूरी व्यवस्था की। स्वयं खड़े रहकर उस व्यवस्था का निरीक्षण करते रहे। यादव कुलाचार्य महर्षि गर्ग से, ब्राह्मणों से, प्रमुख यादवों तथा नागरिकों से महाराज रात्रि में ही मिले। सबकी समुचित व्यवस्था का आश्वासन दिया। सब हुआ; किन्तु कंस के हृदय में जो कृष्ण एवं यादवों के वैर का बीज था, वह नष्ट नहीं हुआ। कंस मर गया; किन्तु उसका वह वैर उसकी पत्नियों के हृदय में जमकर बैठ गया और मगध जाकर विशाल विष-वृक्ष बना। कंस की पत्नियाँ समर्थ पिता की पुत्रियाँ थीं। उनका हृदय जल रहा था– ‘हमारे स्वामी का शव पड़ा रहा, हम बिलखती रहीं और कोई दो शब्द आश्वासन के कहने देर तक नहीं आया। यह बूढ़ा–इसके सब पुत्र मरे पड़े थे और इसे अपने राजमुकुट की पड़ी थी। हमारे स्वामी का वंश समाप्त हो गया। हम यदुवंश को समाप्त करवा कर रहेंगी। हमारे नाथ के कुल में कोई जलदाता नहीं तो पूरे यदुकुल में कोई जलदाता नहीं बचेगा।’ वैर का यह बीज लेकर कंस की अन्तिम क्रिया पूरी होने पर; तेरह दिन बाद ही वे मगध चली गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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