भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
यादवेन्द्र उग्रसेन
उग्रसेन लज्जित हो गये। उन्हें बहुत संकोच हुआ। यह आशंका भी उन्हें अतिशय भयभीत कर रही थी कि ये मेरे सिर राज्य-भार डालकर स्वयं चले न जायें। महाराज उग्रसेन ने अब तक बड़ी मनोव्यथा झेली थी। वे शान्त, सात्विक भगवद भक्त पुरुष थे। उन्हें यह व्यथा वर्षों व्याकुल किये रही– ‘मैं कंस जैसे क्रूर, निर्दय, नृशंस पुत्र का पिता हूँ। धिक्कार है मुझे।’ राज्य गया, सुख गया, सम्मान गया, अपने पुत्र ने ही उन्हें बन्दीगृह में डाल दिया, किन्तु उन्हें इस सबका दु:ख कभी नहीं हुआ। कंस चाहता था कि वे कारागार में पर्याप्त सुविधा पूर्वक रहें। l सेवक उनके प्रति विनम्र ही बने रहे; किन्तु स्वयं उन्होंने तपस्वी का जीवन अपना लिया था। वे अत्यल्प में सन्तुष्ट रहने लगे थे। ‘भोग काल बीत चुका था। राज्य तो कंस का ही था। वह युवराज था। उसे सिंहासन देकर वन में चला जाता और नारायण का भजन करता।’ महाराज कारागार के एकान्त में सोचा करते थे– ‘श्रीहरि दयामय हैं। उन्होंने कंस के पापों के दायित्व से मुझे बचा लिया। मैंने उसे राज्य दिया होता तो दायित्व होता मेरा।’ ‘कंस ने देवकी का पुत्र मार दिया।’ जब-जब यह समाचार मिला- उग्रसेन ने सच्चे हृदय से प्रार्थना की– ‘कंस स्वार्थी-पिशुन है! प्रभो, इस मूर्तिमान पाप से पृथ्वी का परित्राण करो।’ ‘पुत्र के कर्मों में पिता का भी भाग होता है।’ यह सोचकर बहुत व्यथा होती थी महाराज को– ‘यह भोजवंश का कलंक। इससे यदुवंश का त्राण कैसे होगा!’ यह चिन्ता उनका पिण्ड नहीं छोड़ती थी। ‘मुझमें कहीं पाप है–घोर पापी हूँ मैं। अन्यथा ऐसा पुत्र मेरे कैसे होता।’ अपने को वे धिक्कारते रहे हैं। ‘यदुवंश उत्पीड़ित हो रहा है। लोग भाग रहे हैं। मथुरा के सब सम्मानित जन चले गये। कंस के अनुचर ऋषि-मुनियों के आश्रम ध्वस्त कर रहे हैं।’ कारागार में समाचार आते थे और उग्रसेन छटपटा कर रह जाते थे।’ जिन यदुवंश-भूषणों का आजीवन सम्मान-सत्कार किया उन्होंने, वे निर्वासित हो रहे हैं? प्राण-भय से भागने को विवश हैं आज वे। जिन भुवन वन्द्य विप्रों, ऋषियों की सेवा में शरीर अर्पण कर देना भी वे अपना सौभाग्य मानते रहे हैं, वे उत्पीड़ित किये जा रहे हैं। उन पर अत्याचार हो रहा है और वह भी उन्हीं के पुत्र द्वारा।’ ‘देवकी के अष्टम पुत्र नहीं, कन्या हुई। वह देवी–अष्टभुजा कह गयी कि कंस को मारने वाला उत्पन्न हो गया।’ जिस दिन यह समाचार मिला था, उग्रसेन ने सन्तोष की साँस ली थी। उस दिन उन्होंने आराध्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी– ‘इस नृशंस से प्रजा की रक्षा तो हो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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