भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
यादवेन्द्र उग्रसेन
अरिष्ट मारा गया। केशी मर चुका। कंस ने अक्रूर को भेजकर उन्हें मथुरा बुलवाया है।’ समाचार मिला तो मन उल्लसित हुआ– ‘प्रभु मथुरा आ गये, धन्य हो गयी मधुपुरी। अब कंस का भय मिटेगा। अवश्य अधर्म मिटकर रहेगा।’ कल अचानक धनुर्भंग का धमाका सुनायी पड़ा था। महाराज उग्रसेन ने तो तभी समझ लिया था कि उनके पुत्र की आयु अब समाप्त प्राय: है। उन्हें प्रसन्नता हुई थी। कंस के प्रति उनके मन में कहीं मोह नहीं। आज प्रात: वे कारागार से लाये गये; रंगभूमि में। पुत्र ने पिता का यह अपमान भी किया। समस्त मण्डलेश्वरों के मध्य उन्हें बन्दी के रूप में बिठाया गया। कोई ग्लानि, कोई खेद नहीं मन में। उग्रसेन के नेत्र भी सबके समान द्वार पर ही लगे थे– ‘मेरे आराध्य आने वाले हैं।’ वह गजदन्त लिये श्री राम-श्याम का प्रवेश। सबके साथ महाराज ने भी सम्पूर्ण उल्लसित कण्ठ से जयघोष किया था– ‘भगवान् वासुदेव की जय।’ मल्लयुद्ध हुआ और अचानक कल्पना से परे की घटनाएं शीघ्रता से घट गयीं। कंस तो मारा ही गया, महाराज उग्रसेन के शेष आठों पुत्र भी मारे गये। नि:सन्तान मारे गये सब। अब उग्रसेन का वंश नष्ट हो गया। कोई जलदाता नहीं रहा उनके कुल में। अन्तत: वे पिता हैं। नौ पुत्रों के शव सामने पड़े हैं और विधवा पुत्र वधुएं उन शवों से लिपटकर वक्ष कूट-कूटकर क्रन्दन कर रही हैं। उग्रसेन का हृदय शोक से व्याकुल है तो आश्चर्य क्या। ‘ये नवजलधर सुन्दर सामने खड़े हैं। ये परमाराध्य! जिनके श्रीचरणों के दर्शन की कामना जीवन भर हृदय में पलती रही, वे सम्मुख हैं। कैसी विकट परिस्थिति में सम्मुख है।’ महाराज उग्रसेन का हृदय मथ उठा– ‘ये कहते हैं कि सदा के लिए मथुरा से चले जायेंगे।’ ‘मैं वृद्ध हूँ। असमर्थ हूँ। जो बन्दी रह चुका, उसका प्रभाव तो अस्त हो चुका।’ किसी प्रकार उग्रसेन ने कहा– ‘उसका शासन कैसा? शासन तो प्रभाव से चलता है। अब इसको–इस असहाय को तो क्षमा करो।’ ‘कौन कहता है कि आप असहाय, असमर्थ, प्रभावहीन हैं।’ श्रीकृष्ण की वाणी में सहज तेज आया– ‘मैं अग्रज के साथ आपके सिंहासन के पार्श्व में भृत्य होकर खड़ा रहुँगा। किसका साहस है कि आपके आदेश का अतिक्रमण करे। आपके चरणों में महेन्द्र, वरुण, निधिपति और यम भी उपहार अर्पित करना अपना सौभाग्य मानेंगे। आपके चरणों में प्रणत होकर सुर भी धन्य समझेंगे अपने को।’ ‘श्रीकृष्ण जायेंगे नहीं, वे रहेंगे। सिंहासन के पार्श्व में बने रहेंगे।’ महाराज को आश्वासन मिला। श्रीकृष्ण के वचनों का सत्य तो त्रिभुवन को स्वीकार है। उग्रसेन ने मस्तक झुका दिया। उस मस्तक पर मुकुट रखते कृष्णचन्द्र का उच्च घोष गूँजा– ‘यादवेन्द्र महाराज उग्रसेन की जय!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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