भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
रंगशाला में
‘यह सौन्दर्य! यह छवि तो सीधे हृदय में ही प्रवेश कर गयी है। कामदेव तो एक ही सुना था–आज क्या वह गौर-श्याम दो रूप बनाकर आया है?’ नारियों की–तरुणियों की अदभुत दशा हो गयी। सिरों से वस्त्र खिसक गये। वेणियाँ खुल गयीं। शरीर स्वेद से भीगता चला गया। वे कहाँ बैठी हैं–कौन देख रहे हैं उन्हें–कुछ स्मरण नहीं। प्राणों में एक तीव्रतम पिपासा भड़क उठी है– ‘ये देख लें! एक बार हम पर भी दृष्टि निक्षेप कर लें।’ ‘ये आये दाऊ और कन्हाई।’ व्रजराज ने गोपों ने देखा– ‘ये अपने बालक आये। सकुशल आ गये। सम्भवत: हम लोगों को ही ढूँढ़ रहे हैं।’ उठा नहीं जा सकता–पुकारा नहीं जा सकता; किन्तु गोप-व्रजराज भी हाथ से संकेत करके समीप बुलाने लगे हैं। ये बालक अभी रंगशाला देखने में लगे हैं। ‘ये आये हमारे शासक–हमारे स्वामी!’ जो नरेश थे वहाँ, उनको लगा कि उनके सच्चे सम्राट तो आज उनके सामने आये हैं। इनके करों का गजदन्त-क्षितिशेश्वर राजदण्ड भी हतप्रभ है इनके सम्मुख। सभी राजाओं ने अंजलि बाँधकर वहीं से मस्तक झुका दिया है। उनके नेत्र कहते हैं– ‘अवसर मिलते ही उपहार लेकर हम श्रीचरणों में अवश्य उपस्थित होंगे।’ ‘दण्डधर!’ दुष्ट नरेश काँप रहे हैं– ‘ये इस मल्लभूमि को इसी समय न्याय-सभा बनाकर उनके क्रूर-कर्मों का कहीं विवरण तो नहीं माँगने लगेंगे? कौन रोक लेगा इनको? क्षमा स्वामी! अब अपराध नहीं होगा। आप आ गये, अब हम आपकी शरण हैं।’ ‘ये अपने बालक आये।’ वसुदेव जी ने देखा और देखते रह गये। ‘इतने बड़े हो गये ये?’ दोनों को अंक में बैठा लेने को हृदय मचल रहा है और माता देवकीजी का वात्सल्य तो उनके वक्ष को भिगोने लगा है। टपक रहा है उज्जवल दूध बना वह उमड़ता वात्सल्य। ‘ये मेरे काल!’ कंस बहुत मनस्वी माना जाता था; किन्तु अत्यन्त उद्विग्न हो रहा है– ‘कुवलयापीड मारा गया। उनके दाँत कन्धे पर धरे ये दोनों मुझे ही ढूँढ़ रहे हैं। अब आये-आये ही मेरी ओर। वह ढाल तलवार सम्हालने लगा है। मल्लों पर मन ही मन रुष्ट हो रहा है कि ये सब चुप क्यों बैठे हैं। दोनों को पकड़कर मल्लभूमि में क्यों नहीं खींच लेते? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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