भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
साकार तत्त्व
वस्तुत: सत्व, रज, तम घटते-बढ़ते नहीं। घटकर जायेंगे कहाँ और बढ़ेंगे तो आवेंगे कहाँ से? रजस-चित्त- प्रकाश जब शान्त, स्थिर हो जाता है तो सत्ता तम और सत्व- सुख शान्ति बनकर एकरस स्थिर हो जाता है। इससे क्रिया और रूप विलीन हो जाते हैं, इसी का नाम प्रलय है। जब अचिन्त्य कारण से कलात्मा की प्रेरणा पाकर चित गति बनता है तो उसकी क्रिया के कारण सत्ता और सुख में भी हलचल होती है। उनकी एकरूपता भंग हो जाती है। वे कहीं अधिक सघन और कहीं कम सघन होने लगते हैं। यह सघनता गति के कारण स्थानान्तरित होती रहती है। सत्ता अधिक सघन हुई तो जड़ व्यक्त हो गये। सत्व-सुख आनन्द सघन हुआ तो देवलोकादि बने, मन, बुद्धि व्यक्त हुए, देव शरीर व्यक्त हुए चित का संयोग लेकर। इस प्रकार सृष्टि में नाना रूप एवं क्रियायें होने लगीं। यह नाना रूप और क्रिया निराधार नहीं है और न निराधार बन सकती। ऐसा होता तो सृष्टि सदा अनिश्चित रहती और इसमें साकारता, कर्म तथ कर्म भोग का कुछ अर्थ नहीं रहता। जैसे उस सर्वेश्वर की प्रकृति है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द ही सत्व, रज, तम के रूप में व्यक्त होता है, वैसे ही इस त्रिगुणमयी प्रकृति में उसके अनन्तधाम, वहाँ के रूप प्रतिबिम्बित होने लगते हैं और प्रतिबिम्ब सर्वथा बिम्ब के अनुरूप हो, यह आवश्यक तो नहीं है। त्रिगुणों की गति प्रतिबिम्ब को गतिशील एवं विकृत करती रहती है। बिम्ब, बिम्ब से किरणें, किरणों से प्रतिबिम्ब और जहाँ प्रतिबिम्ब पड़ा है, उस आधार की गति से प्रतिबिम्ब में गति और प्रतिबिम्ब के प्रकाश से आधार का प्रकाशित होना, यह नियम जगत में स्पष्ट है। मूल बिम्ब है भगवद् , उनमें परमतत्व का सगुण-साकार स्वरूप, उनके परिकर, पार्षद आदि। उनके प्रकाश की किरणें हैं भावना के स्तर; क्योंकि धाम चिन्मय है। मन में- प्रत्येक मन में ये भाव गृहीत होते हैं। मन केवल उन भावों को व्यक्त मात्र करता है, जिस भाव स्तर में जब पहुँचता है। अतिशय चंचल होने के कारण वह विविध भाव स्तरों में घूमता रहता है। स्थिर मानस अर्थात एक भाव स्तर में स्थित मानस। तुम जानते हो कि किसी भाव में मन स्थिर हो जाय तो उसी भाव के अनुरूप भगवदुपलव्धि हो जाती है। भगवान् के रूप नित्य हैं, तो वे भाव के अनुसार बनते नहीं। भाव- प्रत्येक भाव ही उन रूपों की किरण है और जब मन एक भाव में स्थिर होता है, उस भाव का रूप व्यक्त हो उठता है। जगत में कोई कर्ता हो, नवीन कर्म करे, यह सम्भव कैसे हो सकता है ? यहाँ जो भी रूप दीखता है, जो भी क्रियायें होती हैं, वे तो नित्यधाम की प्रतिबिम्ब मात्र हैं- वहाँ की लीलाओं का प्रतिबिम्ब मात्र- अवश्य ही इनमें प्रतिबिम्ब में आधार की गति से विकृति आयी है- विकृति आती रहती है। नित्यधाम अनन्त है, अत: दृश्य जगत में उनमें-से कभी किसी का प्रतिबिम्ब आविर्भूत होता है, कभी किसी का तिरोभूत होता है। इससे कल्प-कल्प में सृष्टि में कुछ वैभिन्य रहता है और एक कल्प में भी युगों के परिवर्तन होते रहते हैं; लेकिन तुम जानते ही हो कि श्रुति कहती है- धाता यथापूर्वकमकल्पयत्।।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ॠग्वेद मं. 10. सू. 190. म. 3
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