भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
साकार तत्त्व
सृष्टि अधिकांश में पूर्व कल्प के समान ही रहती है और युगों में, मन्वन्तरों में इनके प्रधान संचालकों में ही नहीं, उनकी आकृतियों, गुणों, क्रियाओं में भी प्राय: पूर्व कल्प का सादृश्य वर्तमान रहता है। जो निर्गुण, निराकार, अवाङ् मनसगोचर, अद्वयतत्व है - वही अपनी अचिन्त्य शक्ति से विविध सगुण साकार चिन्मय धामों, उनके अधिष्ठाता, परिकर, पार्षदादि रूपों में व्यक्त हो रहा है। यह उसकी प्रकृति है ही वही अपने सच्चिदानन्द रूप को सत्व, रज, तम रूप से व्यक्त किये है और इसमें काल रूप से स्थित होकर कभी गुणों की साम्यावस्था प्रलय प्रकट करता है और कभी-वैषम्यावस्था सृष्टि प्रकट करता है। सृष्टिकाल में वे चिन्मय अनन्त धाम इसमें प्रतिबिम्बत होकर नाना रूपों में दीखने लगते हैं। यही जगत का आधिभौतिक रूप है। इनमें जो प्रतिबिम्ब है, वह अधिदैव है और दिव्य धाम अध्यात्म है। बिम्ब से प्रतिबिम्ब अभिन्न है, अत: जो अध्यात्म पुरुष है, वही अधिदैव पुरुष है। दोनों में पार्थक्य तो स्थूल जगत - स्थूल जगत की आसक्ति ने उपस्थित किया है।
कर्म तो स्वत:हो रहे हैं। कह सकते हो कि अपने नित्य धामों में विविध रूपों से वह लीलामय जो लीलाए कर रहा है, वही इस प्रकृति में प्रतिबिम्बित हो रही हैं और यहाँ जो विकृति उन रूपों और लीलाओं में आ जाती है, वह भी अकस्मात् या अनिश्चित नहीं है। ‘मैं कर रहा हूं’ इस अज्ञानजन्य अहंता के कारण जीव कर्ममल से युक्त हो जाता है और यही उसके इस संसार-चक्र में भटकने का कारण है। अविद्या अनादि है, अत: जीव का यह भटकना भी अनादि है: किन्तु इसका अन्त है। अज्ञान का स्वभाव ही है कि वह अनादि होता है और ज्ञान होने पर मिट जाता है। इस अनादि अविद्या दूर कर देने के उपायों का नाम है साधन। सच यह है कि लीलामय सर्वेश्वर ही अनुग्रह करता है - किसी को अपनाना चाहता है तो उसकी प्रवृत्ति साधन की ओर होती है। ‘मैं कर्ता हूं’ इस अहंकार से जीव अशुभ कर्मों से ही लिप्त नहीं होता, शुभ कर्मों से भी लुप्त होता है और शुभ कर्मों के उपलेप या पुरस्कार हैं सुख-भोग; किन्तु जब यह शुभ कर्मों का उपलेप बहुत अधिक हो जाता है, सत्वगुण बहुत आ जाता है, स्वभावत: उसमें शान्ति, संयम, प्रकाश आ जाता है और तब सर्वेश्वर अनुग्रह करके उसे साधन की ओर उन्मुख कर देता है। प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश है। अन्त:करण समन्वित आभास जीव है और आभास तो उस परम प्रकाशक का ही है। अन्त:करण और देह भी प्रतिबिम्ब है किसी नित्य धाम स्थित स्वरूप विशेष का। अत: अपने मूल बिम्ब को पहिचान लेना ही जीव का परम पुरुषार्थ है। यह ज्ञान ही उसे इस आवागमन के कर्तव्य के भ्रम से मुक्त कर देता है। [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋते ज्ञानात्र मुक्ते (शांकर सम्प्रदाय में यह बहुत प्रामाणिक श्रुति मानी जाती है, किन्तु मन्त्र संहिताओं में तथा प्राप्त आरण्यकों एवं उपनिषदों में कहीं मिलती नहीं।)
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