पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वन में मिलन
अर्जुन ने देखा कि अपने आश्रितों का तिरस्कार होने से श्रीकृष्ण क्रुद्ध हो गये हैं। उन सत्य संकल्प का संकल्प अन्यथा तो हो नहीं सकता। अब दुर्योधन, कर्णादि को मरना तो है ही किन्तु ये भक्तवत्सल रोके न गये तो अभी सबको मार देंगे। ये चक्र उठाएँगे तो कौन उसका प्रतिकार कर पायगा ? यह उचित नहीं होगा। धर्मराज ने जो द्यूत का नियम स्वीकार कर लिया है उसे भी सत्य हो जाना चाहिए। पाण्डवों ने स्वयं स्वीकृत नियम नहीं माना और अपने सहायकों के द्वारा संग्राम प्रारम्भ करा दिया, यह अपयश क्यों लिया जाय। अत: अर्जुन ने श्रीकृष्ण को शान्त करने के लिए उनका स्तवन किया – ‘श्रीकृष्ण ! आप समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तरात्मा हो। हम सबके हृदय की जानते हो। आप सर्वसमर्थ हो। सब जगत आपसे ही उदित होता है और अन्त में आप में ही समा जाता है। आपने भौमासुर को मारकर सुरों का संकट दूर किया। जगत के उद्धार के लिए ही आप पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं। आप ही नारायण श्रीहरि हैं। ब्रह्मा, सोम, सूर्य, धर्म, धाता, यम, अग्नि, वायु, कुबेर, रुद्र, काल, आकाश, पृथ्वी तथा दिशा भी आप ही हैं। पुरुषोत्तम ! आप सर्वरूप अजन्मा होकर भी जगत्स्रष्टा हैं। समय-समय पर अवतार लेकर आप ही धरा का भार और सुरों का संकट दूर करते हैं। मधुसूदन ! आप में क्रोध, द्वेष, असत्य, क्रूरता, कुटिलता का लेश भी नहीं है क्योंकि आप सबकी आत्मा हैं, सब ऋषि-मुनि आपका ही चिन्तन-स्तवन करते हैं। आप इस समय शान्त हों। हमारे तो आप ही एक मात्र आश्रय हैं।’ अर्जुन की स्तुति सुनकर श्रीकृष्ण गम्भीर स्वर में बोले – ‘धनञ्जय ! ये सब लोग सुन लें, सब दिशाएँ और देवता मेरी इस वाणी के साक्षी रहें। तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा हूँ। जो मेरे हैं, वे तुम्हारे हैं और जो तुम्हारे हैं, वे मेरे हैं। जो तुमसे द्वेष करता है, वह मुझसे द्वेष करता है और जो तुमसे प्रेम करता है वह मुझसे प्रेम करता है। तुम नर हो, मैं नारायण हूँ। हम दोनों में कोई अन्तर नहीं है।’ भगवान भक्त का, भक्त पक्षपाती, भक्तवत्सल है। भक्त के सम्मुख उसे दूसरा कुछ नहीं दीखता। न्याय और नियम दूसरों के लिए होते हैं। जनार्दन सदा-सदा के अपने जन के–एकमात्र अपने आश्रित जनके ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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