पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. गिरिव्रज-गमन
‘जरासन्ध इतना दुर्जय क्यों है?’ धर्मराज ने पूछा- ‘आप अच्युत भी उसकी उपेक्षा क्यों करते रहे? आपका विरोध करने के कारण तो उसे ध्वस्त हो जाना चाहिए था।’ युधिष्ठिर की आशंका उचित थी। जहाँ उनके अत्यन्त प्रिय दो भाई और प्राण के समान श्रीकृष्ण जा रहे थे, उस शत्रु की शक्ति का कारण समझना आवश्यक था। श्रीकृष्णचन्द्र ने उन्हें जरासन्ध की जन्म-कथा सुनायी। ‘मगध के नरेश थे वृहद्रथ। तीन अक्षौहिणी सेना थी उनके समीप। बलवान् रूपवान, ब्राह्मण भक्त थे। याज्ञिक थे, किन्तु उनकी दो पत्नियों में किसी के भी सन्तान नहीं थी। काशिराज की इन दोनों पुत्रियों पर उनका समान प्रेम था। पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर भी उनके पुत्र नहीं हुआ। गौतम कक्षीवान् के पुत्र महात्मा चण्डकौशिक के राजधानी के समीप पधारने का समाचार मिला तो वृहद्रथ अपनी दोनों पत्नियों के साथ उनके दर्शन करने गये। उनको भेंट देकर सन्तुष्ट किया। वे महात्मा आम्रवृक्ष के नीचे बैठे थे। एक पका फल उनकी गोद में उसी समय गिरा, जब राजा ने उनसे पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की। महात्मा ने वह फल राजा को दे दिया- ‘इसे खाकर तुम्हारी रानी उत्तम पुत्र को जन्म देगी।’ वृहद्रथ सन्तुष्ट होकर लौट आये। उस फल को चीरकर दो भाग किये और दोनों रानियों को एक-एक भाग दे दिया। फलत: रानियाँ गर्भवती हुईं; किन्तु उनके गर्भ से शिशु के आधे-आधे अंग उत्पन्न हुए। सिर से पैर तक प्रत्येक खण्ड में आधा ही बना था। जैसे मस्तक के मध्य से उसे फाड़ दिया गया हो। उन अंगों का कोई क्या करता। रानियाँ प्रसव में सहायता करने वाली धात्री ने उन्हें उठाया और राजभवन का जहाँ कूड़ा डाला जाता था, उस पर डाल, दिया। वृहद्रथ याज्ञिक थे। उनके यज्ञों में सात्त्विकता होती तो बात दूसरी थी, किन्तु सकाम राजसयज्ञ वे प्राय: करते थे और उनमें पशु-बलि होती थी। बलि पशु के अंगों की अंतड़ियाँ, अस्थियाँ आदि उस कूड़े के ढेर पर डाली जाती थीं। इस कारण एक जरा नाम की राक्षसी ने वहाँ अपना अड्डा बना लिया था। |
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