पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. ब्रह्मास्त्र से पुन: रक्षण
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को ब्रह्मास्त्र से ही शान्त करके अर्जुन ने उसे पकड़ लिया और अपने उत्तरीय से ही उसे रथ पर बांध दिया। श्रीकृष्ण का स्वभाव भी अदभुत है। ये सब ठीक कहते हैं और कब किसी की परीक्ष लेते हैं, कहना कठिन है। इस समय अर्जुन की धर्म-परीक्षा लेने की आपको सूझ गयी। बोले- 'धनञ्जय ! मार दो इसे। इसने सोये हुए तुम सबके पुत्रों को व्यर्थ मारा है। उनकी हत्या से न इसका कुछ लाभ हुआ, न इसके स्वामी दुर्योधन का ही कोई भला हुआ। यह आततायी है और तुम्हारे प्रियजनों का हत्यारा है। इस पर दया मत करो। तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की है इसका सिर लाने की।' 'केशव ! यह चलेगा तो सिर भी इसका चल ही रहा है।' अर्जुन ने बहुत शान्त स्वर में उत्तर दिया- 'इसने कुछ भी किया हो, हमारे गुरु का पुत्र है। अत: इसके सम्बन्ध में द्रौपदी को ही निर्णय करना चाहिए।' 'द्रौपदी क्या निर्णय करेगी !' भीमसेन ने गर्जना की- 'इसे मरना है। मैं इसे जीवित नहीं छोड़ सकता।' लेकिन निर्णय यही रहा कि अपराधी के रूप में अश्वत्थामा को राजा युधिष्ठिर के सम्मुख उपस्थित किया जाना चाहिए। अश्वत्थामा की कान्ति नष्ट हो गयी थी। वह सिर झुकाये हुए था। अब किसी की ओर देखने की भी उसमें साहस नहीं था। अर्जुन ने इसी रूप में उसे ले जाकर द्रौपदी के सम्मुख खड़ा कर दिया- 'यह है तुम्हारे पुत्रों का हत्यारा !' भक्त के स्वभाव में बदला लेना नहीं होता। वह भक्त ही नहीं, जिसका स्वभाव भगवान के स्वभाव से एक न हो गया हो। भगवान यदि प्राणी के अपराध देखने लगें, किसी का भी कभी उद्धार सम्भव नहीं। उन करुणा वरुणालय को तो कृपा ही करनी आती है। द्रौपदी भक्त थी। उसके सब पुत्र जिसने मारे थे, पुत्रों के शव सामने पड़े थे; किन्तु अश्वत्थामा का वह श्रीहीन लज्जा से झुका मस्तक देखना उसे असह्य हो गया। उसके हृदय में कृपा उमड़ पड़ी। 'ये आचार्य पुत्र !' द्रौपदी ने अश्वत्थामा के चरणों में सिर झुकाया- 'इन्हें छोड़ दीजिये ! पुत्र के रूप में स्वयं द्रोणाचार्य ही तो हैं यहाँ सम्मुख, जिनकी कृपा से आप सबने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। मैं माता हूँ, अपने पुत्रों के मारे जाने से कैसी मर्मान्तक पीड़ा होती है, इसका अनुभव कर रही हूँ। वैसी ही पीड़ा इनकी माता कृपाचार्य जी की बहिन को भी होगी, यदि इनको मार दिया गया। मेरे पुत्र तो अब जीवित नहीं हो सकते। जगत में दूसरी कोई माता मेरे कारण मेरे समान दु:खिया नहीं बननी चाहिये। इनका बन्धन शीघ्र खोल दीजिये। ये हम सबके लिए सम्मान्य हैं।' अश्वत्थामा के नेत्रों से भी अश्रु झरने लगे। इस महनीय के पुत्र मारे उसने ! लेकिन भीमसेन के नेत्र अंगार हो रहे थे। उन्होंने गर्जना की- 'इस नराधम पापी को क्षमा नहीं किया जा सकता।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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