पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. राजसूय-यज्ञ
श्रीकृष्णचन्द्र के पाञ्चजन्य की मंगल ध्वनि सुनायी पड़ी और इन्द्रप्रस्थ में सबने समझ लिया कि जरासन्ध समाप्त हो गया। युधिष्ठिर ने बड़े उल्लास से स्वागत किया। अधिकांश नरेशों ने स्वेच्छा से युधिष्ठिर को सम्राट स्वीकार करके कर दे दिया। बहुत थोड़े स्थानों पर युद्ध करना पड़ा और जहाँ भी युद्ध हुआ, प्रचण्ड पराक्रम पाण्डु के पुत्रों का विजयश्री ने वरण किया। श्रीकृष्णचन्द्र ने जिन्हें विजयी होने का वरदान देकर अपनी विशेष शक्ति से सम्पन्न करके भेजा था, उनकी विजय में सन्देह तो किसी सामान्य व्यक्ति को भी नहीं था। वे लोग अपार सम्पत्ति कर तथा उपहार रूप में प्राप्त करके लौटे। अब राजसूय यज्ञ करके सम्राट पद की प्राप्ति की औपचारिकता ही पूर्ण करनी रह गयी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य जी को, भगवान् व्यास को तथा अन्य ऋषियों को भी साथ लिया और श्रीकृष्णचन्द्र के कक्ष में पहुँचे। श्रीद्वारिकाधीश ने उठकर सबको यथायोग्य प्रणाम किया। सबके आसन स्वीकार कर लेने पर युधिष्ठिर ने कहा- ‘माधव! आपके कृपा-प्रसाद से ही सम्पूर्ण धरा-मण्डल हमारे वशवर्ती हुआ है। हमें बहुत अधिक सम्पत्ति भी प्राप्त हुई है। मैं इन महर्षि को साक्षी करके कहता हूँ कि यह सब आपकी है, आपके लिए है। इसका उचित उपयोग यही है कि इसके द्वारा आप यज्ञ पुरुष का पूजन हो और ब्राह्मणों तथा अन्य सभी प्राणियों का सत्कार किया जाय। अत: आप राजसूय यज्ञ के लिए अनुमति दें। ये ऋषिगण उपयुक्त मुहूर्त बतला रहे हैं। आप यज्ञ करेंगे तो अपने पूर्वजों के साथ हम निष्पाप हो जायेंगे अथवा आप मुझे ही यज्ञ दीक्षा लेने की अनुमति दें तो मैं आपकी इस सम्भार से अर्चना करूँ। आपकी जो आज्ञा होगी, यह कार्य उसी के अनुसार होगा।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- ‘महाराज ! आप सम्राट हैं। आपको ही यह महायज्ञ करना चाहिए। मैं आपके दूसरे भाइयों के साथ अपकी सेवा में उपस्थित हूँ। अब आप दीक्षा ग्रहण करें।’ |
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