पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
अर्जुन ने प्रस्ताव किया और श्रीकृष्णचन्द्र ने उसका अनुमोदन कर दिया। अपनों की अभिलाषा सार्थक करना उनका स्वभाव ही है। अर्जुन भी कहाँ अपने लिए प्रस्ताव कर रहा था। उसे भी तो अपने सखा को ही संतुष्ट करना था। उसे लगता था कि श्रीद्वारिकाधीश राजसदन में दिनभर बैठे-बैठे ऊबेंगे, अत: उसने कुछ दूर यमुना किनारे शिविर में रहकर स्नान, आखेट आदि का प्रस्ताव किया था। धर्मराज युधिष्ठिर से कहा गया तो उन्होंने उपयुक्त स्थान पर शिविर सज्जित करा दिये। वहाँ सेवक भेज दिये। संगीत-वाद्य आदि की व्यवस्था करा दी। उस समृद्धि सम्पन्न शिविर में अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण जाकर निवास करने लगे। ब्राह्मण को देखते ही दोनों मित्र उठे और अपना गोत्र, नाम लेकर दोनों ने भूमि पर गिरकर प्रणिपात किया। ब्राह्मण देवता ने आशीर्वाद देकर बिना आसन ग्रहण किये ही कहा- ‘आप दोनों त्रिभुवन में सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वसमर्थ हैं, अत: यह बहु भोजी ब्राह्मण आपके समीप भोजन की भिक्षा माँगने आया है।’ कौतुहल के लिए कारण नहीं रहा। अतिथि ने अपना परिचय दिया- ‘मैं अग्नि हूँ और आप दोनों देखते ही हैं कि पाण्डु रोग से पीड़ित हूँ। मेरी इस रोग से मुक्ति की औषधि भगवान् ब्रह्मा ने मुझे बतलाई है कि मैं इस खाण्डव वन को जला डालूँ, इसे उदरस्थ कर लूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज