पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. बर्बरीक–वध
अचानक भीमसेन का पौत्र घटोत्कच पुत्र बर्बरीक युद्ध भूमि में उपस्थित हुआ। यह राक्षस आकार में अपने पिता से भी प्रचण्ड था और एकाकी ही रहता था। उसके समीप धनुष था और कुछ थोड़े से बाण थे। उसने चर्म वस्त्र धारण किये थे और अभी अपनी तप:स्थली पश्चिम समुद्र तट से सीधे ही आया था। प्रसिद्ध था कि इसने अत्युग्र तप करके आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। श्रीकृष्ण तथा सभी पाण्डवों की वन्दना की बर्बरीक ने और सबकी प्रदक्षिणा करके बोला – ‘युद्ध के इतने बड़े आयोजन की क्या आवश्यकता है ? प्राणियों की मृत्यु का समय उनके जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है। मृत्यु का निमित्त भी निश्चित रहता है। अत: उस निमित्त को उपस्थित कर देना मात्र उन्हें मार देगा। जिनकी मृत्यु इस समय नहीं होनी है और शस्त्र से नहीं होनी है, उन्हें कोई आयोजन मार नहीं सकता।’ युधिष्ठिर ने कहा –‘वत्स ! तुम्हारी बात ठीक है। संग्राम में जिनकी शस्त्र से मृत्यु निश्चित है उन्हीं के मरण का निमित्त यह युद्ध बनेगा।’ बर्बरीक ने हँसकर कहा – ‘इसके लिए इतना श्रम तथा इतना आयोजन व्यर्थ है। यह निमित्त तो मेरे दो शर उपस्थित कर सकते हैं।’ आश्चर्य से युधिष्ठिर ने कहा- ‘तुम यह कैसे कर सकते हो?’ ‘आप देखें !’ यह कहकर बर्बरीक ने एक लाल रंग की भस्म निकाली और अपने एक पोले बाण में भर दी। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर उसने उस वाण को चढ़ाया और बिना किसी लक्ष्यक कोई मन्त्र पढ़कर आकाश की ओर छोड़ दिया। वह मुट्ठी भर भस्म इतनी बढ़ गयी कि उससे वहाँ का पूरा आकाश अरुण हो उठा। क्षणों में ही वह धूलि नीचे उतरी और दोनों सेना के सैनिकों, अश्वों गजों आदि सबकी छाती पर नन्हें बिन्दु के रूप में जम गयी। बर्बरीक अट्टहास करके बोला – ‘आप देख लें। इस समय जिनकी भी शस्त्र से मृत्यु होने वाली है उन्हें मैंने चिह्नांकित कर दिया है। उन सबके वक्ष पर लाल बिन्दु बन गया है। अब मैं दूसरा वाण सन्धान करता हूँ। उससे शत, सहस्त्र शर प्रकट होंगे और इन सबके वक्ष को विदीर्ण करके इनको मृत्यु के मुख में फेंक देंगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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