पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
एक राज्य के राजा को मार दिया था। श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन तीनों शस्त्रहीन थे और वहाँ केवल वह गदा थी जो जरासन्ध के हाथ में थी। दूसरी बात यह कि अब बन्दी राजाओं की मुक्ति में एक क्षण का भी विलम्ब अकारण था। यह बिलम्ब श्रीकृष्ण को सहन नहीं था। वे तीनों तत्काल वहाँ से निकले। देवराज इन्द्र के लिए विश्वकर्मा ने पहिले एक दिव्य रथ बनाया था। उसी में बैठकर इन्द्र ने अनेक बार दानवों पर विजय प्राप्त की थी। उसके ऊपर एक इन्द्र धनुष के समान चमकती ध्वजा थी जो बिना ध्वज-दण्ड के ही फहराती रहती थी। उस सौंदर्यवान नामक रथ में दो महारथी एक साथ बैठकर युद्ध कर सकते थे। वह स्वर्ण निर्मित, अनवरुद्ध गति, वायु वेग रथ इन्द्र ने ययाति को दिया था। वह कुरुवंश में वंश परम्परा से राजा वसु तक रहा। चेदिराज वसु ने उसे अपने मित्र मगधराज वृहद्रथ को दे दिया। पिता का वह रथ जरासन्ध के पास था। श्रीकृष्णचन्द्र ने मल्लशाला से निकल कर सीधे उस रथ पर अधिकार किया। उसमें अश्व घोड़े और भीम तथा अर्जुन को बैठाकर स्वयं सारथि बने। इस कार्य से दो बातें श्रीद्वारिकाधीश ने साध ली। कोई चाहे तो भी अब उस महावेग रथ का पीछा करने का कोई साधन गिरिव्रज में किसी के समीप नहीं था। दूसरे बन्दी-नरेशों के साथ दुर्व्यवहार करने अब वहाँ पहिले नहीं पहुँच सकता था। क्योंकि अनेक बार ऐसे अवसरों पर झुंझलाहट में क्रूर लोग बन्दियों को मार देते हैं। बन्दियों की मुक्ति के लिए आये लोगों ने उनके अधिपति को मारा, अत: उनका आक्रोश बन्दियों पर उतरे, यह अस्वाभाविक तो नहीं ही है। वे छियासी नरेश विभिन्न राज्यों के थे। विभिन्न समयों पर मगधराज उन्हें पराजित करके पकड़ लाया था। लेकिन गिरिव्रज की पर्वतीय खोह के कारागार में पहुँचकर सबकी समान अवस्था हो गयी थी। वे परस्पर मित्र बन गये थे। उनके श्मश्रु-केश बढ गये थे। रूखे-उलझे हो गये थे। नख बढ़ गये थे। वस्त्र और शरीर भी मलिन थे। सब बहुत कृश तथा कान्तिहीन हो गये थे। मगधराज ने उनको आहार देने में कोई कृपणता नहीं की थी। उन्हें स्नान के लिए जल भी मिलता था; किन्तु वस्त्र तथा देह भली प्रकार स्वच्छ हो सके, इतनी सुविधा उन्हें नहीं थी और न उनमें यह सब करने का उत्साह था। उन्हें पता था कि जरासन्ध उनकी संख्या सौ होते ही उनकी बलि देने वाला है। वे तो जीवन से निराश मृत्यु की घड़ी गिनने वाले लोग थे। इस भय ने उनका शरीर कंकाल प्राय: बना दिया था। उनके नेत्रों के चारों ओर गाढ़ी कालिमा छा गयी थी और उन्हें तो सर्वत्र अन्धकार ही दीखता था। |
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