पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. पार्थ पवनपुत्र परिचय
अर्जुन को अकेले जाकर तपस्या करके भगवान पुरारि को प्रसन्न करना था। पाशुपतास्त्र तो प्राप्त करना ही था, देवताओं के दिव्यास्त्र भी इसी समय मिलने थे। श्रीकृष्ण सानुकूल होते हैं तो संयोग एवं सफलताएँ स्वयं आजुटती हैं। इस यात्रा में अकस्मात पार्थ को पवन पुत्र श्रीहनुमान जी मिल गये। परस्पर परिचय हुआ। अर्जुन ने अभिवादन किया। दो भगवद्भक्त मिलेंगे तो उनमें स्वभावत: भगवच्चर्चा चलेगी। अर्जुन ने अपनी यात्रा का उद्देश्य बतलाया कि उन्हें कौरवों से होने वाले अनिवार्य युद्ध में दिव्यास्त्र प्राप्त करना है। इसके लिए तप करने वे हिमालय के इस दिव्य देश में जा रहे हैं। इस प्रसंग में श्रीमारूति ने मर्यादा पुरुषोत्तम का मंगलमय चरित सुनाना प्रारम्भ कर दिया। सेतुबन्ध का वर्णन सुनकर अर्जुन को आश्चर्य हुआ। वे बोले – ‘श्रीरघुनाथजी अथवा उनके अनुज सौ योजन समुद्र पर अपने शरों का सेतु नहीं बना सकते थे कि नल-नील को तथा आप सबको पर्वत ढोने का श्रम करना पड़ा?’ हनुमानजी हँसे – ‘वे सर्वसमर्थ कर तो सब कुछ सकते थे किन्तु बाणों के द्वारा बँधे सेतु पर इतनी विशाल वानरी सेना कैसे पार हो सकती थी ?’ अर्जुन ने सगर्व कहा – ‘यह आशंका अकारण है। ऐसा सेतु तो मैं क्षणों में बना दे सकता हुँ कि उस पर चाहे जितनी बड़ी सेना समस्त सामग्री के साथ पार हो जाय।’ अर्जुन का यह अभिमान असह्य था। इसमें पवनकुमार को अपने आराध्य के पराक्रम की अवगणना लगी। वे रोषपूर्वक बोले – ‘समुद्र तो बहुत दूर, तुम इस सम्मुख के सरोवर पर शरों का सेतु बना दो और वह मेरा भार सहन करके भंग न हो जाय तो मैं शरीर त्याग दूँ।’ अर्जुन भी आवेश में आ गये। वे बोले – ‘मेरा बनाया बाणों का सेतु यदि आपके भार से भग्न हो जाय तो मैं प्रज्वलित चिता में प्रवेश करके प्राण विसर्जन कर दूँगा।’ श्रीहनुमान का आवेश उचित था। अपने आराध्य का अपमान वे सहन नहीं कर सकते थे; किन्तु अर्जुन के आवेश में अपने पौरुष का अभिमान तथा अविवेक था। अकारण ही बिना सोचे समझे वे ऐसी प्रतिज्ञा कर बैठे किन्तु किया क्या जाय। उनके स्वभाव में यह दुर्बलता न होती तो वे नर क्यों कहे जाते। वे सामान्य पुरुषों के प्रतिनिधि हैं और प्राणियों में यह दुर्बलता दुर्गुण नहीं है, यदि वह उसे समझकर पुरुषोतम को अपना सखा बना सके। हम सबल ही होते तो उस सर्वसमर्थ की सहायता की हमें क्यों अपेक्षा होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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