पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. अंडों की रक्षा
कुरुक्षेत्र की उस रण भूमि में जहाँ कौरव-पाण्डवों की सेनाएं युद्ध के लिए एकत्र हुई थीं, टिटिहरी (भार्दूल) पक्षी ने अण्डे दे रखे थे। यह पक्षी भूमि पर, रेत में अथवा घास पर यों ही अण्डे धर देता है। उसके ऊपर, आस-पास उड़ता है और कौओं पर तो आक्रमण करके उन्हें भगा भी देता है। इतनी विशाल सेनाएं एकत्र हुई। असंख्य गज, अश्व, पैदल, रथ आये। इनके अपार कोलाहल में दो पक्षी भी व्याकुल चिल्लाते घूमते, उड़ते हैं- इसकी ओर किसी का भी ध्यान भला क्यों जाता। यही दैवकी कम कृपा नहीं थी कि अब तक उनके अण्डे किसी प्राणी के पद के अथवा पहिये के नीचे आकर फूट नहीं गये थे। उस मिट्टी के रंग से मिलते कुछ भूरे अण्डों को देखने का अवकाश किसे थे। वे मनुष्य के पैर के नीचे भी आ जाते तो वह उनके लिए पश्चात्ताप करने वाला नहीं था। जहाँ लोग स्वयं ही मरने या मारने आये हैं, वहाँ इतनी तुच्छ बातों पर ध्यान नहीं दिया जा सकता। मनुष्य अपनी चिन्ता में, अपने गर्व में भले नन्हें प्राणियों की उपेक्षा कर दे किन्तु उन प्राणियों में भी तो अपने अण्डे, अपने शिशुओं का उतना ही मोह, उतनी ही प्रियता होती है जितनी मनुष्य की अपने तथा अपनों के प्रति। किसी सम्राट के लिए अपना शिशु युवराज जितना ममतास्पद तथा महत्त्वपूर्ण है, किसी पक्षी के लिए अपने अण्डे उससे कम प्रिय तथा महत्त्वपूर्ण तो नहीं हैं। वह टिटहरी का जोड़ा-बहुत अल्प शक्ति, दुर्बल पक्षी है यह। इतनी बड़ी भीड़-भाड़ में वह व्याकूल चिल्लाता उड़ता रह सकता था। उसे अपने रहने, रात्रि विश्राम के लिए भी दूर जाना पड़ता था किन्तु अण्डों का मोह उन्हें फिर-फिर खींच लाता था। सेनाएं व्यूहबद्ध खड़ी हो गयीं। शंखों और वाद्यों का गगनभेदी निनाद गूंजने लगा तो दोनों पक्षी भय के कारण दूर, बहुत दूर चले गये किन्तु उनके अण्डे-यह मोह कहीं उन्हें बैठने नहीं देता। वे फिर लौटे तो वहाँ थोड़ी शान्ति हो गयी थी। अर्जुन का नन्दिघोष रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा हो गया था। और उसके नव जलधर सुन्दर सारथि अपने सखा से कुछ कह रहे थे। पक्षियों को अपने अण्डों के समीप उतरने को एक बार और संभवतः अन्तिम बार अवकाश मिला। सहसा यह शान्ति फिर भंग हो गयी। शंख, वाद्य, लोगों का जय घोष, वाणों की सनसनाहट, शतध्नियों का भयंकर गर्जन-यह सब प्रारम्भ होते ही वे बेचारे अल्पप्राण पक्षी भय के मारे चिल्लाते हुए उड़े। यह ठीक है कि केवल मनुष्य योनि ही कर्म योनि है और इसी में साधन का श्रीगणेश संभव है किन्तु मनुष्य के कर्म ही जब समस्त भोग योनियों में जीव को ले जाते हैं तो कौन कह सकता है कि कोई पथ भ्रान्त साधक शरीर त्यागकर अमुक योनि में नहीं जा सकता और साधन तो शरीर-नाश से समाप्त नहीं होता। उल्टे मृत्यु साधन में बाधा डालने वाले अपकर्मों के संस्कार को संचित के संग्रह में डालकर जीव के पथ को ही प्रशस्त करती है। पूर्वजन्म के किन्हीं सत्कर्मों से, भगवद्भजन के प्रभाव से उन पक्षियों के अन्तःकरण में उस विपत्तिजन्य व्याकुलता ने भगवत्समृति का उदय कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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