पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
1. मंगलाचरण
पार्थ-सारथि के प्रणमिय पुण्य चरण, 2. अपनी बात
सच बात यह है कि इस खण्ड के साथ यह श्रीकृष्ण चरित जो ‘भगवान वासुदेव’ के मथुरा चरित से प्रारंभ हुआ था और जिसका परिपाक ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में हुआ, समाप्त हो जाता है। होना यह चाहिये था कि इस ‘पार्थ-सारथि’ के अध्याय यथाक्रम ‘श्रीद्वारकाधीश’ में आते रहते और तय जीवन चरित को ठीक कालक्रम प्राप्त होता, किन्तु इससे चरित का दूसरा भाग बहुत बड़ा हो जाता और जो बात मैं स्पष्ट करना चाहता था, वह रह जाती। श्रीकृष्णावतार पूर्णावतार है। इसमें सम्पूर्ण भगवत्ता व्यक्त हुई है। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:। सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ये छ: सम्यक पूर्ण होने पर ‘भग’ कहे जाते हैं और इन छ: की जिसमें पूर्णता है वह भगवान है। श्रीकृष्णचंद्र स्वयं कहते हैं- अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।[2] भगवान व्यास ने महाभारत में स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है- ’जगदवशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम।[3] मथुरा चरित ‘भगवान वासुदेव’ का ऐश्वर्यचरित है। कंस-वध से प्रारंभ होकर मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से ले आना प्रभृति सब अतिमानवी ऐश्वर्यलीला है। ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में इस ऐश्वर्य सम्पूर्ण परिपाक हो गया। कल्प वृक्षहरण ईश्वरत्व की धरा पर अभिव्यक्ति को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। बलपूर्वक ही सुधर्मा सभा लायी गयी द्वारिका में- ’अतिक्रमन्त्यंघ्रिभिराहृतां बलात् सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम्।[4] सोलह सहस्र एक सौ आठ विवाह और अपार परिवार जहाँ यश श्री की पराकाष्ठा है- ईश्वर का अनन्त भोग, अनन्त सामर्थ्य सूचित करता है, वहाँ धर्म की- गार्हस्थ्य धर्म की पराकाष्ठा है और वैराग्य की ज्ञान की भी पराकाष्ठा है- यदुकुल को अपने हाथों ही समाप्त करके स्वधाम गमन से पूर्व उस विषम स्थिति में उद्धव को ज्ञानोपदेश करने में। मथुरा से अन्त मक श्रीकृष्णचंद्र प्राय: चतुर्भुज हैं, उनका कहीं स्पष्ट द्विभुज रूप का उल्लेख नहीं है। उन्होंने गरुड़वाहन तथा चक्र का उपयोग करने में कहीं संकोच नहीं किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विष्णु पुराण- 6.5-74
- ↑ गीता-10.8
- ↑ अनुशासन पर्व के अन्तर्गत विष्णुसहस्रनाम-135
- ↑ भागवत- 1.14-38
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