पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. अभिन्न सखा
श्रुति ने परमात्मा को जीव का सखा कहा है और श्रुति तो उसी परमेश्वर की वाणी है। श्रुति का अर्थ ही है परमात्मा की स्वयं स्वीकृति। वह स्वीकृति है कि वह सर्वाधार, सर्वनियामक ही सर्वरूप है और अपने सुहृद सखा जीव से अभिन्न है। जीव और ईश्वर परस्पर सदा एक ही हुए रहते हैं। वह अन्तर्यामी हृदय में जीव को, देहाभिमानी को अपने अंक में ही लिये बैठा रहता है। श्रीकृष्ण उसके हैं जो उन्हें अपना स्वीकार कर ले। वे जिसके हो गये, उसके सर्वथा हो गये। अपनों से अपने को अभिन्न ही रखना इनका स्वभाव है। भीष्म पितामह ने शर शैय्या ली। कौरव पक्ष ने शीघ्र अपने शोक को संयमित कर लिया। पितामह के संग्राम भूमि में गिरते ही कर्ण स्वयं कौरव सेना के आगे आ गया। उसकी सम्मति से आचार्य द्रोण को दुर्योधन ने अपने पक्ष के महासेनापति पद पर प्रतिष्ठित किया। कौरव सेना में पुनः उत्साह आ गया। द्रोणाचार्य ने शीघ्र सिद्ध कर दिया कि उनको महासेनापति बनाकर दुर्योधन ने कोई भूल नहीं की है। वे प्रथम प्रधान सेनापति भीष्म से पराक्रम तथा युद्ध कौशल में किंचित भी न्यून नहीं थे। उन्होंने महासेनापतित्व पर प्रतिष्ठित होते ही दुर्योधन से कहा- 'तुम जो चाहो, वर वरदान मुझ से मांग लो।' दुर्योधन ने बहुत सोचकर मांगा- 'आप युधिष्ठिर को जीवति पकड़कर मेरे समीप ला दें।' द्रोणाचार्य चकित रह गये। युधिष्ठिर सचमुच अजातशत्रु हैं। दुर्योधन का तर्क उचित था। युधिष्ठिर मार दिये जायँ तो अर्जुन इतने क्रुद्ध हो जायँगे कि दिव्यास्त्रों के प्रयोग में मर्यादा-पालन भूल जायँगे। धनंजय तो दूर, नकुल-सहदेव में भी कोई एक क्रोधावेश में हो तो वह अकेला ही समस्त कौरव सेना का संहार कर देगा। भीमसेन तो प्रलय ही कर डालेंगे। युधिष्ठिर को मारना तो अपने पूरे कुल का बुलाना है किन्तु उन्हें बन्दी करके फिर द्यूत में हराया जा सकता है। तब सब भाइयों के साथ वे वन में चले जायँगे। यह विजय पाने का सुगम साधन है। द्रोणाचार्य ने उत्साह में वरदान देने को कहा था। अब अपनी शक्ति समझकर सावधान हो गये। बोले- 'अर्जुन को युद्ध में देवता, असुर भी पराजित नहीं कर सकते। अतः यदि अर्जुन को तुम लोग दूर रख सको, वे युधिष्ठिर की रक्षा करने न जायँ तो युधिष्ठिर को बन्दी ही समझो।' दुर्योधन ने घोषणा करा दी कि आचार्य ने युधिष्ठिर को बन्दी बनाने की प्रतिज्ञा की है। पाण्डव शिविर में इस घोषणा का समाचार पहुँचा तो युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा- 'तुम युद्ध में मेरे समीप ही रहना।' द्रोणाचार्य के महासेनापतित्व में होने वाला प्रथम दिन का संग्राम ही अत्यन्त भयानक हुआ। पाण्डव पक्ष ने जहाँ पूरी शक्ति लगा दी, वहाँ आचार्य ने भी भयंकर पराक्रम प्रकट किया। कौरव महारथी आचार्य की रक्षा में जी जान से जुटे हुए थे। दोनों ही ओर बहुत अधिक विनाश हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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