पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. इन्द्रप्रस्थ आगमन
महाराज द्रुपद की पुत्री से विवाह करके पाण्डव पाञ्चाल में ही थे। हस्तिनापुर में दुर्योधनादि के चित्त में हलचल मची थी। अब उनका षडयन्त्र लोक प्रसिद्ध हो चुका था। विदुर ने धृतराष्ट्र से कहा- ‘लोक में पुरोचन की अपेक्षा आपके ज्येष्ठ पुत्र का ही इसे कुकृत्य माना जा रहा है कि लाक्षा भवन में पाण्डवों को भस्म करने का प्रयत्न किया गया।’ दुर्योधन तथा शकुनि पाण्डवों को बुलाकर उन्हें नष्ट करने का कोई और उपाय करना चाहते थे। कर्ण की सम्मति थी कि तत्काल आक्रमण कर देना चाहिए; किन्तु भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर का दृढ़ मत था कि पाण्डवों को बुलाकर उन्हें आधा राज्य दे दिया जाना चाहिए। धृतराष्ट्र को चेतावनी मिली और सबको ही यह आशंका तो थी ही कि श्रीकृष्णचन्द्र कौरवों का अन्याय चुपचाप सहन नहीं कर लेंगे। वे जनार्दन बड़े भाई तथा सात्यकि के साथ अपनी पूरी सेना लेकर पाण्डु–पुत्रों के पक्ष में कभी भी आ सकते हैं, इस सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। द्रुपद जैसे शक्तिशाली नरेश अब उनके सम्बन्धी हो चुके थे। लाक्षागृह कुकृत्य प्रकट हो जाने से प्रजा तथा दूसरे राजा भी अब कौरवों के पक्ष में रह नहीं गये थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने विदुर के सन्देश का स्वागत किया। उन्होंने कहा- ‘पाण्डवों को हस्तिनापुर जाना चाहिए। अपने पैतृक राज्य में ही उनकी प्रतिष्ठा तथा उचित स्थान है।’ महाराज द्रुपद ने इस सम्मति को स्वीकार किया। विदुर युधिष्ठिरादि को लेकर हस्तिनापुर आये। धृतराष्ट्र की प्रेरणा से दुर्योधनादि सबने उनका स्वागत किया। गुरुकुल की नारियों ने नव-वधू द्रौपदी का कूलाचार-पूर्वक सत्कार किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहा- ‘तुम लोगों का अब अपने भाई दुर्योधनादि से विवाद उपस्थित न हो, इसके लिए उचित है कि तुम आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थ में निवास करो। वहाँ अर्जुन तुम लोगों की रक्षा कर लेंगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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